Lock-down : विस्थापन के बाद रोज़गार पर पड़ी मार, बची कसर लॉकडाउन ने कर दी पूरी

निगहत 

बस्ती विस्थापन के मामले हर कहीं देखने को मिल जाते हैं। सरकार नियम-कायदे के नाम पर किसी का भी घर उजाड़ कर रख देती है। उनकी आवाज़ सुनने वाला और उनकी जरूरत को समझने वाला कोई नही होता। विस्थापित लोगों को कहीं बसाया भी जाता है तो वह घर के नाम पर सिर्फ डिब्बे होते हैं, और इन डिब्बों में 7 से 8 लोगों के परिवार को रहना पड़ता हैं। ऐसे रहना किसी कैद से कम नहीं होता। उनके पास पालने के लिए जो जानवर हैं, जिसे पालकर वो दो पैसे कमा सकते हैं, उसे घर में रखना मुश्किल हो जाता है। अपनी झुग्गी टूटने के बाद अपने जानवरों को मजबूरी में औने-पौने दामों में बेच आते हैं। उनको पता है कि खुद का गुज़ारा करना मुश्किल है तो इन बेज़ुबान जानवरों का गुज़रा कैसे करेंगे।

आम तौर पर विस्थापित लोगों को शहर से दूर कहीं बसा दिया जाता है। ऐसी जगहों पर जिंदगी ज्यादा कठिन होती है। वहां कोई सुविधा नहीं होती उनके पास। जैसे पानी, स्वास्थ्य सेवा, राशन के लिए कंट्रोल, शौचालय न होना। हालात इतने बुरे होते हैं कि शहर से दूर एक कोने में रोज़गार मिलना नामुमकिन होता हैं। ऐसे में दिहाड़ी के लिए शहर तक आने के लिए जो किराए का पैसा चाहिए वो भी लोगों के पास नहीं होता है। सरकार के लिए वंचित समुदाय के जीने-मरने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। वो महज एक संख्या ही बन जाते हैं।

यह भी पढ़ें:  Ground Report: वातावरण सो रहा था, अब आंख मलने लगा है

मध्य प्रदेश में भोपाल के भानपुर में रहने वाली तनवीर जिनकी उम्र 35 वर्ष हैं, वो बताती हैं कि तीन सालों से ज़्यादा समय हो गया है उनको ऐशबाग झुग्गी से भानपुर मल्टी में विस्थापित हुए। भानपुर मल्टी में अभी तक पीने का पानी, साफ सफाई, हॉस्पिटल, राशन की दुकान की कोई भी सुविधा नहीं है। तीन सालों से भी ज्यादा समय हो गया है यहां के लोगों को भानपुर मल्टी में रहते हुए। यहां की जनसंख्या दो हज़ार के आसपास है।

उन्होंने बताया कि जब शुरुआत में भानपुर मल्टी में शिफ्ट किया गया था तब भी मल्टियों का यही हाल था। पानी के लिए बाहर टंकी रखी थी, जिसे लोग अपने घरों में बाल्टियों से पानी भर कर ले जाते थे। वो भी चार मंजिला। ऐसे में महिलाओं को चार मंज़िल पर पानी भरने में मुश्किल होती है। बिजली के खुले हुए तार घरों पर लटकते हैं। गंदगी का अंबार लगा है। यहां सफाईकर्मी ही नहीं आते। एक आंगनवाड़ी है वो भी जरजर है।

उन्होंने बताया कि हमारे वहां शिफ्ट होने के बाद लाइट की थोड़ी बहुत फिटिंग हुई थी और पुताई भी हमारे सामने ही हुई। ऐसे में उस जगह रहना बहुत मुश्किल था। सोचा था कि समय के साथ-साथ सरकार हम लोगों को सुविधा भी दे देगी, लेकिन तीन सालों में तो मल्टी के और बुरे हालात हो गए हैं। बिजली कभी भी चली जाती है। सफाई नहीं होती है। पानी की सप्लाई बंद हो गई थी तो उसको चालू करने के लिए भी आवेदन लेकर भटकना पढ़ा। ऐसे में मुश्किलें और बढ़ गईं।

यह भी पढ़ें:  काश! लॉकडाउन ने भूख पर भी ताला मार दिया होता

तनवीर बताती हैं कि जब से भानपुर मल्टी में रहने आए हैं, लोगों के रोज़गार पर बहुत ज़्यादा असर पड़ा है। जो लोग सिटी में मज़दूरी करते थे, उनके लिए भानपुर से सिटी जाने के 100 रुपये लगते हैं। ऐसे में अगर किसी की मज़दूरी 100 से 200 रुपये भी दिहाड़ी मज़दूरी के मिलते थे तो उसका आधा पैसे तो कियाए में ही चला जाता है। जो महिलाएं बीड़ी या छोटा-मोटा रोज़गार करती थीं वो रोज़गार भी अब कम हो गया है। ऐसे में मल्टी के लोग छोटी-मोटी दुकानें, किराने या सब्जी का ठेला लगाकर अपना गुज़ारा कर रहे हैं।

ऐसे में जिन महिलाओं ने अपने रोज़गार के लिए पैसों का समूह उठाया था, वो भी लॉकडाउन की मार से घर में खर्च हो गए, क्योंकि काम ही नहीं है तो पैसा भी नहीं है। अब कोई और रास्ता नहीं है, घर चलाने का। वैसे ही सरकार ने विस्थापन करके हम सब का रोज़गार छीन लिया था। जो थोड़ा बहुत कमा रहे थे, सरकार ने उस काम पर भी अपनी तालाबंदी कर दी है। ऐसे में भानपुर मल्टी के कुछ परिवार अपना घर छोड़ कर किराए के मकान में सिटी में रह रहे हैं।