शिक्षक को बच्चों का दोस्त बनना होगा, तभी खुलकर सीख पाएंगे बच्चे

निदा फाजली का मशहूर शेर है—
बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे
बच्चों की मासूमियत और किताबों के संसार के बीच की दूरी को रेखांकित करता यह शेर यूं तो बाज मौकों पर सही ही है, लेकिन सैकड़ों किताबें पढ़कर भी एक इंसान अपने बचपने को कैसे बचाए रख सकता है, इसकी मिसाल भोपाल में रहने वाले कार्तिक शर्मा हैं। बच्चों की हुनरमंदी को खेल खेल में सामने लाने वाले कार्तिक से शिक्षा, बच्चे, मौजूदा माहौल और अन्य मसलों पर आजाद बोल के युवा साथी सिमरन और शोएब ने कोविड—19 के लॉकडाउन के दौरान फोन पर लंबी बातचीत की। इस बातचीत के संपादित अंश:—

कार्तिक जी आप बच्चों के साथ काम करते हैं, तो शुरुआत बचपन से ही करते हैं, हमें अपने बचपन के बारे में कुछ बताइये?
कार्तिक शर्मा: मैं छिंदवाड़ा जिले के परासिया का रहने वाला हूं। मेरा जन्म वहीं हुआ। बचपन सामान्य बच्चों की तरह ही बीता। मैंने 6वीं कक्षा से सरकारी स्कूल में पढ़ाई की। समाजशास्त्र से एमए किया है। मेरे परिवार में हम तीन भाई और मां हैं। दो भाइयों की शादी हो गई है।

किताबों के साथ आपका रिश्ता कैसे बना? किताबें पढ़ना और किताबों के बीच वक़्त गुज़ारना कब शुरू किया?
कार्तिक शर्मा: हमारे घर में पढ़ने—लिखने का माहौल शुरू से ही है। छोटे थे तब हमारे घर कई पत्रिकाएं आती थीं, जिन्हें हम पढ़ा करते थे। 11वीं में एकलव्य संस्था में पार्ट टाइम काम करने का मौका मिला। 2 साल पुस्तकालय चलाया। वहां रहने का मौका मिला। किताबें पढ़ने की रुचि हुई। 1999 में भोपाल आ गया। यहां किताबों की मार्केटिंग की और पिटारा का सेटअप किया।

आपने लंबा समय बच्चों के साथ काम किया है। तो आज से 20-25 साल पहले के बच्चों औऱ अभी के जो बच्चे हैं, उनमें क्या कोई फर्क देखते हैं?
कार्तिक शर्मा: पहले के बच्चों में और अभी के बच्चों में ज़्यादा फर्क तो नहीं आया हैं। हां, पेरेन्ट्स में ज़रूर बदलाव आया है। वो बच्चों पर प्रेशर डालते हैं। वह चाहते हैं कि बच्चे सब सीख लें। कई गांव और शहर में काम के अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि बच्चे तो साफ मन के होते हैं। निर्मल मन के होते हैं। कुछ नया सीखते हैं। अब जैसे पलायन होते हैं। लोग एक जगह से दूसरी जगह काम करने जाते हैं। बड़े बच्चों के पास छोटे बच्चों को छोड़ देते हैं। कई जगहों पर बच्चे आज भी ढाबे पर काम करते हैं। यही वो फर्क है जो अभी तक नहीं बदला।

आप कई संस्थाओं से जुड़े रहे। आपने युवाओं के कई समूह भी बनाए। उनका हिस्सा रहे। इनका अनुभव कैसा रहा? और अगर आप इन संस्था, समूहों में न होते तो आज क्या होते?
कार्तिक शर्मा: कभी कुछ ऐसा सोचा नहीं था। शुरू से एकलव्य से जुड़ा। ऐसे काम करने की इच्छा रही। मैंने अपनी इच्छा की पूर्ति भी की। ऐसी संस्था के साथ ही काम करता, कभी सोचा नहीं था क्या काम करूंगा? पर किसी न किसी संस्था के साथ जुड़ा रहता। युवाओं के साथ काम करने का शौक रहा। एकलव्य में बाल समूह में जाता था। वहां उनसे मुलाकात होती थी। कई अलग—अलग जगह गया। युवाओं के पास बहुत एनर्जी होती। उस समय का दौर भटकाव वाला रहता है। वह सोचते हैं यह कर लें वो कर लें। मित्रों का मामला रहता है। समाज, परिवार का मामला रहता है। उस समय बहुत सी समस्याएं होती हैं। जगह की फिज़िकल भी कैपिसिटी बदलती रहती है। कभी परिवार का साथ मिलता है। कभी नहीं मिलता है। युवाओं को इस फील्ड में जगह दी। तो कुल जमा मेरा अनुभव रहस्मय, रोचक रहा। कुछ लोग तो इसमें काम करने को राजी नहीं थे। उन्हें तैयार किया इसके लिए।

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ऐसा कोई अनुभव कि काम करने को राजी नहीं थे?
कार्तिक शर्मा: उज्जैन में थिएटर में एक नाटक किया। एक साथी उसे करने से मना करने लगे। वो कहने लगे— मैं नहीं करूंगा। वो डायरेक्टर मुझ पर चिल्लाते रहते हैं। मैंने उसे समझाया कि मैं तुमको थोडी एक्टिंग सीखा देता हूं। वो तुम्हें शाबाशी देंगे। उसने वो नाटक किया। सबने उसकी खूब तारीफ़ की। फिर वह गांव—गांव जाकर नाटक करने लगे। थियेटर में उसने कैरियर बनाया। यह बदलाव युवाओं में आता है।

आपके काम में किन लोगों का सबसे ज़्यादा सहयोग रहा?
कार्तिक शर्मा: मददगार तो एक टीम होती है। आप जब संस्थाओं में काम कर रहे होते हैं, तो बहुत कुछ सीख रहे होते हो। मैंने तो देख—देख कर बहुत कुछ सीखा है। एकलव्य में वरिष्ठ साथी हैं। उनसे सीखने को मिला। बच्चों के साथ वर्कशाप किया। उनसे सीखने को मिला। युवाओं के साथ काम किया, उनसे सीखने को मिला। रवि भाई, सुब्रमण्यम भाई और भी कई साथियों के साथ सीखने को मिला। लिखकर—पढ़कर सीखा। हालांकि अभी बहुत कुछ सीखना है।

बच्चों को खेल के जरिये पढ़ाई से जोड़ा जा सकता है। यह बात लगभग दुनिया के हर शिक्षाविद ने कही है। लेकिन हमारा जो शिक्षा का ढांचा है। उसमें बच्चों पर पढ़ाई का इतना प्रशेर क्यों लाद दिया जाता है? इसमें क्या बदलाव होना चाहिए?
कार्तिक शर्मा: बदलाव तो बिल्कुल होना चाहिये। जैसे कि आपने अभी कहा कि शिक्षा के ऊपर इतना दबाव है कि बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं। पढ़ने का, लिखने का, याद करने का दबाव है और इसको खेल से बहुत अलग कर दिया है। हालांकि कुछ सरकारी स्कूलों में जैसे प्राइमरी और मिडिल स्कूल स्तर पर कक्षाओं में थोड़ा बदलाव आया है। जैसे कि कहानियां और कविता पढ़कर सुनाते हैं। लेकिन पढ़ाई को बहुत ही ज्यादा मैकेनिक मशीन की तरह बना दिया है। जब मैं खुद स्कूल के अंदर जाता हूं और बच्चों से मिलता हूं। उनके साथ कहानियां, कविता या फिर खेल के जरिये कोई एक्टिविटी करता हूं तो बच्चों को सीखने को बहुत कुछ मिलता है। शिक्षा तो ऐसी ही होना चाहिये कि बिना रटे और बिना डरे आजादी के तरह आराम से सीखें। बच्चों के साथ मैदान पर खेल खेलते हैं, और उसमें उनका जो सीखने का तरीका होता है, तो वो काफी खुल जाते हैं। तब बच्चे मुझसे और ज्यादा जुड़ जाते हैं और प्यार सम्मान भी देने लगते हैं। ये शिक्षक में होना चाहिये कि बच्चे उनसे डरें नहीं। बच्चे उनसे एक अलग सा रिश्ता बनाएं जिसके कारण वो अच्छे से सीखें और समझें।

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आप बच्चों के बीच रहते हैं। उनके लिए काम करते हैं, तो आपके भीतर का बचपन कितना अभी जिंदा है?
कार्तिक शर्मा: मेरे अंदर का बचपन अभी बहुत जिंदा है। यह मेरे बुढ़ापे तक या फिर मरने तक रहेगा। क्योंकि जब मैं बच्चों के साथ रहता हूं या फिर बड़ों के साथ कहानियां सुनता रहता हूं तो मैं भी कहानी का मजा लेता हूं। मैं बच्चों के साथ क्राफ्ट बनाता हूं तो मुझे भी अच्छा लगता है और मैं अपना बचपन जीने लगता हूं। मेरा अभी भी मन करता है तो में गाना बजाकर नाच लेता हूं। जो भी बचपन में होता है मैं उसे बिना डरे या फिर बिना कुछ परवाह किये सब कुछ कर लेता हूं। मेरे सामने हजार बच्चे हों, हजार टीचर्स हो या फिर युवा हों तो भी मैं बिना हिचकिचाहट के सब कुछ कर सकता हूं। मेरे अंदर का बचपन खास तौर पर तब दिखता है जब मैं बच्चों के बीच रहता हूं तो मुझे अच्छा लगता है। मैं कुछ ना कुछ करूं जो बच्चों के मन में होता है। तो मेरे अंदर का अभी बहुत सारा बचपन जिंदा है।

आप इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं?
कार्तिक शर्मा: पढ़ना अभी थोड़ा कम किया हुआ है। पर अभी मैं पत्रिका चकमक और साझी बात पढ़ रहा हूं। एकलव्य की पत्रिका ज्यादा पढ़ते हैं, और मेरे पास कहानियों की किताबें भी हैं जो में पढ़ता हूं। जो बच्चों के लिए भी हैं और बड़ों के लिए भी हैं। मैं साहित्य भी पढ़ता हूं। इंटरनेट पर आर्टिकल और कुछ खबरें भी पढ़ लेता हूं।

किस विषय पर ज्यादा पढ़ते हैं?
कार्तिक शर्मा: सब्जेक्ट तो यही होता है। जो सामाजिक जीवन है, जो हमारे काम का हिस्सा रहता है। मैं उसी को देख कर पढ़ता हूं।

आप के बारे में सुना है कि आप पढ़ते बहुत हैं, लेकिन लिखते कम हैं। ऐसा क्यों?
कार्तिक शर्मा: जरूरी नहीं है कि जो व्यक्ति पढ़े वो लिखे भी। मेरा लिखने का हिस्सा जो रहा है कि मैं शुरू से लिखने के मामले में बहुत कमजोर रहा हूं। मैं बातचीत बहुत अच्छे से कर लेता हूं। हर किसी विषय पर या फिर किसी मुद्दे पर लिखना मुझसे नहीं होता। लिखने को भी हम लिख लेते हैं, पर मुझमें अभी क्षमता नहीं है। मैंने कभी अभ्यास भी नहीं किया है। जो भी कारण रहा हो या फिर मौका नहीं मिला है। मैंने आर्टिकल कहानियां ये सब लिखने का अभ्यास नहीं किया। मेरे दिमाग में ये तरीके आते ही नहीं कि मैं आर्टिकल लिखूं या फिर कहानियां कविता। हो सकता है कि आने वाले समय में कुछ छोटा मोटा लिखा जाए। जैसे कि छोटी छोटी कविता लिखीं हैं। एक कहानी छोटे बच्चों के लिये लिखी थी और दो—दो लाइन की कविता लिखी थीं।