लॉकडाउन और लड़कियों के दम तोड़ते सपने

लॉकडाउन और लड़कियों के दम तोड़ते सपने

अमरीन

भोपाल। लड़कियों और महिलाओं को कभी मजहब के नाम पर तो कभी रीति-रिवाज के नाम पर कैद करके रखा गया है। लड़कियों ने भी दिमागी तौर पर इस दासता को कुबूल कर लिया है। उन्होंने इस कैद को ही अपनी खुशी बना लिया है। सभी जगह ऐसी ही स्थिति है। सरहद और धर्म का इसमें कोई बंधन नहीं है।

ऐशबाग के लोगों का भी ऐसा ही हाल है। ऐशबाग बस्ती में ज़्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग रहते हैं। मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को ज़्यादा बाहर निकलने की इजाजत नहीं रहती हैं। अगर कोई काम है या कुछ हुनर सीखना है तो वहीं तक ही सीमित रखा जाता है। उस पर भी लोग और समाज दस सवाल करते हैं।

लड़कियों का पढ़ाई से भी इतना जुड़ाव नहीं रहता है, क्योंकि कहीं न कहीं ये डर भी रहता है कि अगर लड़कियों को पढ़ाएंगे तो वो दुनिया को पढ़ने लगेंगी और सवाल-जवाब करेंगी। अपने फैसले खुद लेने की अक्ल होगी और इन्ही सब डर से ज़्यादा पढ़ाया नहीं जाता है। अपनी इज़्ज़त के लिए लड़कियों की कम उम्र में शादी कर दी जाती हैं। ससुराल का माहौल भी मायके से अलग नहीं होता। लड़कियां एक कैद से निकल कर दूसरी कैद में पहुंच जाती हैं।

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जैसे-तैसे कुछ लड़कियों को थोड़ा-बहुत हुनर और पढ़ाई करने का मौका मिल भी जाता है, लेकिन लॉकडाउन ने वो मौका भी छीन लिया है। बाहर निकलने को तो मना किया ही जा रहा है, साथ ही पढ़ाई भी रोक दी गई है। पढ़ाई और हुनर ही एक ऐसा तरीका था जो उनकी जिंदगी बदल सकता था, लेकिन सरकार की अपनी लापरवाही की वजह से सब कुछ बदल गया है।

वैसे भी घर वाले मौका ढूंढते हैं कि किसी तरह पढ़ाई छुड़वाई जाए और जल्दी ही शादी करवा कर उनको अपने घर का बना दिया जाए। घर की लड़कियों को घर में ही रखा जाए यह सोच भी लॉकडाउन से पूरी हो गई है। सरकार का यह एलान भी अभिभावकों के लिए कारगर साबित हुआ कि शादी में पचास लोगों से ज्यादा भीड़ नहीं जुटेगा। नतीजे में पिछले लॉकडाउन में लड़कियों के हाथ खूब पीले किए गए।

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पलटकर कभी किसी ने न सोचा न पता किया कि ऐसे जल्दबाजी और कमउमरी की शादी से लड़कियों का क्य हाल हुआ। उनके सपने जख्मी हो गए। वह कुछ सीख-पढ़कर आगे बढ़ सकती थीं, लेकिन वह रास्ता हमेशा के लिए बंद कर दिया गया।