Politics of System

Politics of System: हम इलाज देंगे नहीं, आपको किसी और से मदद लेने नहीं देंगे

सचिन श्रीवास्तव

मौजूदा सत्ता (Politics of System) किस तरह अपनी खुदी में मस्त है, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट कहती है कि मदद करने वालों के ख़िलाफ़ किसी सरकार ने मुक़दमा दर्ज किया तो इसे कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट माना जाएगा। इसके दूसरे ही दिन दो अलग अलग राज्य सरकारें अपने अपने शहर के बाशिंदों की जान बचाने वाले जांबाजों के खिलाफ मुकदमे दायर करती हैं। यानी सरकार का ऐलान साफ है। वह खुद सभी को इलाज दे नहीं पाएगी और कोई किसी तरह लुट पिटकर निजी अस्पतालों, या दीगर साधनों से जीने की कोशिश करेगा, तो उसकी वह कोशिश भी कामयाब नहीं होने देंगे। कम से कम आज के दो उदाहरण तो यह साफ कर देते हैं।

 

आज जब सरकारें नाकाम रही हैं। सड़ा गला सिस्टम (Politics of System) अपनी हांफती हुई सांसों के बीच खुद को बचाने में जुटा है और मक्कार नेता अपनी कलई खुलती देख चुप्पी साधे हुए हैं। सत्ता समर्थक नित नए बहानों के साथ जैसे तैसे खुद को पिटने से बचाने की जुगत लगा रहे हैं।

इसी समय में जौनपुर के रितेश अग्रहरी और भोपाल से जावेद खान सामने आते हैं। दोनों एक दूसरे को संभवत: जानते भी नहीं होंगे। दोनों एक दूसरे से पहले कभी मिलते तो शायद बात भी न करते। लेकिन आज इन दोनों की शक्लें एक हो गई हैं। ये दोनों ही सरकार और सिस्टम (Politics of System) की उस ज्यादती का शिकार हुए हैं, जो आज नहीं तो कल हम सबके हिस्से आने वाली है।

रितेश एंबुलेंस ड्राइवर हैं और जौनपुर में लोग इन्हें ऑक्सिजन मैन के नाम से जानते हैं। इस मुश्किल वक्त में जब एम्बुलेंस को लोगों ने पैसा कमाने का जरिया बना रखा है और 4-5 किमी की एवज में 10 से 15 हजार रुपये की मांग कर रहे हैं। तब रितेश ने अपनी पत्नी के ज़ेवर बेचकर लोगों को फ़्री ऑक्सीजन पहुंचाने की शुरूआत की। वे 27-28 मरीज़ों तक ऑक्सीजन पहुँचा भी चुके। इसके लिए रितेश ने अपनी पत्नी के ज़ेवर दो लाख रुपय में बेचे।

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दूसरी तरफ मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के आटो चालक जावेद खान हैं। उनके पास रितेश की तरह एंबुलेंस नहीं थी, तो उन्होंने अपने ऑटो को ही एंबुलेंस में तब्दील कर दिया। वे भी भोपाल के कई परिवारों के लिए खुदाई मददगार बनकर सामने आए। उन्होंने अपने आटो में आक्सीजन सिलेंडर लगाकर लोगों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने की जिम्मेदारी निभाई।

अब होना तो यह चाहिए था कि इन दोनों और इन जैसे हजारों लोगों की कोशिशों को सरकार सलाम करती। प्रशासन उन्हें ईनाम देता। अन्य लोगों को इससे प्रेरणा मिलती और वे भी मदद के इस काम में अपने हाथ बंटाते।

लेकिन ऐसा हो जाए, तो फिर वह राम राज्य नहीं आ जाएगा, जिसकी हुंकार मदमस्त सत्ता पिछले कई दशकों से भर रही है, लेकिन उसके नाम पर दिया जा रहा है एक ऐसा सिस्टम जो लोगों की जान ले रहा है और रोने भी नहीं दे रहा।

भोपाल और जौनपुर में रितेश और जावेद के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गईं। जाहिर है अलग अलग। जौनपुर में यह कारनामा उसी यूपी की पुलिस ने किया जिसकी गाड़ी अपराधियों को ले जाते हुए पलट जाती है, या जो मुंह से गोलियां चलाने का हुनर जानती है।

तो भोपाल में मध्य प्रदेश ने जावेद के खिलाफ एफआईआर दर्ज की, जो देशभक्ति और जनसेवा को अपना उद्घोष वाक्य बनाए हुए हैं, लेकिन उसके कारनामे देखकर लगता है कि इसे देशभक्षी जानलेवा होना चाहिए।

जावेद खान पर धारा 188 के तहत कार्रवाई की गई। पुलिस कहती है कि ऑटो में सिलेंडर रखने की इजाजत नहीं है। जौनपुर में रितेश के ऊपर भी महामारी अधिनियम के तहत मुक़दमा क़ायम किया गया। हालांकि बाद में पता चला कि डीआईजी के निर्देश पर पुलिस ने जावेद को छोड़ दिया।

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असल में सरकार जो कर रही है, और जो करना चाहती है, उसमें वह बिल्कुल साफ है। जनता के बड़े हिस्से से यह सत्ता चरित्र छुपा भी नहीं है। असल में सरकार चाहती है कि आप अपने घर में घुट घुटकर मर जाएं। जो अस्पताल हैं, उनमें पैर रखने की जगह नहीं है। हर जगह से मरीजों की कराहें हैं। सिस्टम जो पहले ही फेल था, उसके हिस्से जब काम आया, तो उसकी सांसें उखड़ चुकी हैं। अब सरकार और प्रशासन चाहता है कि महंगे इलाज को हासिल करने के काबिल जो चंद पूंजीपति धन्ना सेठ हैं, उन्हें छोड़कर बस सत्ता के सबसे करीबी ही जिंदा रहने के प्रति आश्वस्त रहें। बाकी लोग अगर घर में भाप लेकर, पैरासिटामोट और जिंक की गोलियां खाकर किसी तरह बच जाएंगे तो आगे वे वोट डालने के काम आएंगे। फिलहाल सत्ता के लोग खुद की जान बचाने के लिए आधे अधूरे सिस्टम के सबसे बेहतर संसाधन का इस्तेमाल कर रहे हैं।

और अंत में
ऐसे वक्त में वे जो लोगों की मदद कर रहे हैं, जो एक दूसरे के लिए फिक्रमंद हैं, उनके लिए यह वक्त न रोने का है, न चीखने का। बस इंतजार का है। सही समय का इंतजार कीजिए और खुद को मजबूत कीजिए। क्योंकि कोरोना से जीतना तो इस लड़ाई का एक पड़ाव भर है। असली लड़ाई तो उसके बाद शुरू होगी। जो अंतिम होगी, जहां व्यवस्था को पूरी तरह बदलने और सही हाथों में सौंपने की तैयारी की जानी है।