उम्मीद एक बड़ी चीज है, बदलाव आएगा कोशिशें जारी हैं: श्रावणी सरकार

पत्रकारिता में ग्राउंड रिपोर्टिंग करने वाली महिलाएं आज भी बेहद कम हैं। 3 दशक पहले तो हालात और भी ज्यादा एकतरफा होते हुए पुरुषों के पक्ष में झुके हुए थे। ऐसे माहौल में ग्राउंड रिपोर्टिंग के जरिये पत्रकारिता में अपनी पहचान बनाने वाली श्रावणी सरकार ने पिछले दिनों आजाद बोल के साथी मोहम्मद सुलेमान और बाबर खान से लंबी बातचीत की। निजी जीवन से लेकर पत्रकारिता के मौजूदा हालात पर उन्होंने बेबाकी से अपनी बात कही। प्रस्तुत है इस बातचीत के संपादित अंश—:

आपका बचपन कहां बीता, और पत्रकारिता में आना कैसे हुआ?
श्रावणी सरकार: मैं एक बंगाली परिवार से हूं। मेरा जन्म नागपुर महाराष्ट्र में हुआ है। घरवालों ने बड़े भाई के साथ ही स्कूल में दाखिला करा दिया था। उस समय नर्सरी, केजी आदि नहीं होती थी। पहली क्लास में दाखिला हुआ था। स्कूल के बाद मैंने कॉलेज में आगे की पढ़ाई की। एम. एससी.(टेक) एप्लाइड जियोलॉजी में यूनिवर्सिटी टॉपर और गोल्ड मेडलिस्ट रही। उस वक्त मुझे नौकरी की सख्त जरूरत थी। मैंने एक प्राइवेट नौकरी की। पिताजी नहीं चाहते थे कि मैं वह जॉब करूं। उन्हें लगता था कि उनकी बेटी इतनी पड़ी लिखी है। उसे कोई अच्छी जगह काम मिल जाएगा। उस समय उन्होंने मुझे रोका था। लेकिन मैंने सोच लिया था कि अब मुझे कुछ करना है। तब मेरे भाई ने मुझे काफी सपोर्ट किया। पिता जी को समझाया कि कुछ समय की बात है। बाद में तो उसे अच्छी जगह जॉब मिल जाएगी। अभी उसे मत रोको, जाने दो। तभी मेरे एक मित्र ने मुझे अखबार में बतौर पत्रकार काम ऑफर किया। मुझमें लिखने की जो प्रतिभा थी उसे देख कर उन्होंने मुझे यह सुझाव दिया। मैंने हां कह दिया। एक डेढ़ महीने के बाद मुझे लगा कि जो मुझे करना था यह वही तो है। कई बार लोगों ने मुझसे कहा कि क्यों करती हो यह काम इसमें काफी जो​खिम है। मैंने उनसे कहा कि अगर काम करते हुए किसी की मदद हो जाए तो इससे मुझे संतुष्टि मिलती हैं।

आपके समय में पत्रकारिता में महिलाएं ग्राउंड रिपोर्टिंग में काफी कम थीं, तो तब किस तरह की दिक्कतें आईं?
श्रावणी सरकार: पत्रकारिता में महिलाएं थीं लेकिन फीचर या पेज 3 स्टोरी या पुल आउट मैगज़ीन आदि में होती थीं। उस समय मैं अकेली महिला थी जो ग्राउंड रिपोर्टिंग करती थी। गाड़ी चलानी नहीं आती थी। नागपुर में रिपोर्टिंग करने के लिए कभी ऑटो से, तो कभी बस से तो कभी साइकिल रिक्शा से जाना होता था। कहीं दूर जाना होता तो अगर 10 बजे पहुंचना होता तो घर से 8 बजे निकलना पड़ता था। धीरे धीरे मुझे इस काम में मज़ा आने लगा। कैसा भी काम हो मुझे हर चुनौती का सामना करने में मज़ा आने लगा। मुझे अपने कैरियर के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा था। मन भी उसमें लग गया था। बाद मैं मैंने गाड़ी चलाना भी सीख ली तो तकलीफें काफी कम हो गईं। कई बार कुछ लोग गलत मिलते हैं। हर क्षेत्र में यह होता है। मैंने पाया है कि अगर हम अपनी तरफ से स्ट्रॉंग रहें और अपनी डिग्निटी मैंटेन करें, तो मुश्किलें काफी कम हो जाती हैं। ग्राउंड रिपोर्टिंग में मेरे सहयोगी सारे पुरुष थे। जितनी तनख्वाह मुझे मिलती, उतनी तनख्वाह उन्हें भी मिलती। मैं महिला होने के कारण कम काम नहीं करना चाहती थी। कभी तो मैं उनसे ज्यादा काम भी कर देती थी।

यह भी पढ़ें:  लॉकडाउन ने छीने कॉलेज के वह सुनहरे दिन!

आज पत्रकार और पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या लगती है आपको?
श्रावणी सरकार: आजकल पत्रकारों को खुलकर निष्पक्ष रिपोर्टिंग करने में दिक्कत हो रही है। मालिकों पर एक तो बाजार का दबाव है, दूसरा सरकार का। आजकल मीडिया झुकने लगा है।जर्नलिज्म समाज का आईना होता है, लेकिन आज वह नहीं कर पा रहा है, जो उसे करना चाहिए। मेरी नज़र में यही एक कारण है। ऐसा नहीं है कि हर जगह यह होता है। लेकिन अक्सर यह होता है। आज़ादी के पहले अंग्रेज़ हमारी आवाज़ दबा देते थे। इसलिए कुछ लोगों ने सोचा कि हम अपना एक अखबार शुरू करें, अपनी आवाज़ लोगों तक पहुंचाएं। लेकिन आप देखिये आजादी के बाद आवाज़ किसकी आती हैं— पूंजीपति की या सरकार की। धीरे धीरे यह भी एक धंधा बन गया है। इसमें अब वह जज्बा नहीं रहा कि हमें समाज के लिए कुछ करना है। इस बात का डर होता है कि जिसके बारे में खबर छपी है। कहीं वह विज्ञापन देना बंद न कर दे। अखबार के मालिकों पर बाजार का दबाव है और पत्रकार सरकार के प्रेशर के आगे झुकने लगा है। जब वह खुद झुकने लगे हैं, तो सरकार और झुकाती है।

सोशल मीडिया के आने से इन हालात में कोई फर्क आया है क्या?
श्रावणी सरकार: सोशल मीडिया के आने से मुख्य धारा के मीडिया पर और प्रेशर बढ़ गया है। कॉम्पिटीशन बढ़ गया है। सोशल मीडिया पर झूठ परोसा जा रहा है। आजकल कई न्यूज़ पेपर और चैनलों ने भी अपना तरीका सोशल साइट्स की तरह कर लिया है। वे झूठ परोसने लगे हैं। ग्लैमर की दुनिया की बातें करने लगे हैं। ताकि लोगों को मज़ा आए। भले ही वह खबर न हो। इस तरह पूरी पत्रकारिता को बिगाड़ दिया है। कुछ लोगों ने सोचा जैसा चल रहा है, पसंद किया जा रहा है, वैसा ही बन जाओ। फ्री एंड फेयर आप लिख नहीं पा रहे हैं। बाजार के दौर में आप भी शामिल हो गए हैं। आज अगर पत्रकार का मन हो उसके बावजूद उसके मालिक की इजाजत के बिना वो लिख नहीं सकता है। कई पत्रकार मजबूरी में काम करते है। पत्रकारिता भी एक नौकरी ही है।

आप पर ऐसा कोई दबाव आया?
श्रावणी सरकार: मैंने जब महसूस किया कि मुझ पर दबाव डाला जा रहा है। जो मुझे नहीं करना था वो करने को कहा जा रहा है, तो मैंने नौकरी छोड़ दी। ढाई साल मैंने काम नहीं किया। मैं यह नहीं कहती कि सभी गलत हैं। आज भी ऐसे ऑर्गेनाइजेशन हैं, पत्रकार हैं, जो अपना काम ईमानदारी से कर रहे हैं। जो अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर लोगों की आवाज़ उठाते हैं। लोगों की तकलीफ को आवाज देते हैं। सरकार से सवाल करते हैं।

आज हम देख रहे हैं कि पत्रकार दो खेमों में बंट चुके हैं, एक सत्ता के पक्ष में लिख, बोल रहे हैं, दूसरे सरकार से सवाल पूछ रहे हैं, या जमीनी हालात दिखा रहे हैं, इस फर्क को आप कैसे देखती हैं?
श्रावणी सरकार: पत्रकार भी तो हमारे ही बीच का इंसान होता है। कुछ लोग सोचते हैं जैसा माहौल चल रहा है, उसी माहौल में ढल जाओ। आपको सरकार और मालिक दोनों ही पसंद करते हैं। कुछ सोचते हैं कि अगर मैं पत्रकार बना हूं तो मेरी ज़िम्मेदारी है कि समाज की आवाज़ बनूं। सरकार से सवाल करूं। पहले सारे पत्रकार एक ही खेमे में थे। धीरे धीरे ऐसी मानसिकता वाले लोग आए या उनकी ट्रेनिंग वैसे हुई। इंसान कैसा है, माहौल कैसा मिला, ट्रेनिंग कैसी मिली है, इसमें मार्केट के दबाव का बड़ा रोल है।

यह भी पढ़ें:  लॉक डाउन में चाय पीना पड़ा भरी, एक रात गुजारी जेल में, जमानत पर रिहा, पर धारा का पता नहीं

मुख्यधारा की पत्रकारिता में क्या चुनौतियां हैं, और उनसे कैसे मुकाबला किया जा सकता है?
श्रावणी सरकार: आज वैकल्पिक पत्रकारिता एक बेहतर विकल्प बन कर उभरा है। मुख्यधारा की पत्रकारिता में कुछ वेबसाइट हैं, जैसे दा वायर, दा प्रिंट सभी का ज़िक्र नहीं कर रही हूं। गाँव कनेक्शन एक वेबसाइट है जो गाँव की सारी समस्या उठाते हैं। इन्होंने एक सर्वे किया है जिसमें पता चला कि लॉकडाउन में किस तरह की तकलीफ हुई हैं, क्या परेशानी हुई? सब को समझ आ रहा है कि मैनस्ट्रीम मीडिया में हम वह सब नहीं कर रहे। तो जिन के लिए पॉसिबल है उससे बाहर निकल कर ऐसा प्लेटफोर्म ढूंढें जहां वह उनके मन में जो इशू हैं, वह काम कर सकें। यह अच्छा तरीका है। जैसे कि मान लीजिए कि कुछ लोग साथ आ जाएँ, थोडा पैसा भी लाएं, एक सेटअप बना कर अच्छा जर्नलिज्म करने की कोशिश करें तो उनका फिर सुना भी जाने लगता है। धीरे धीरे उनका नाम भी होता है और उनकी आवाज़ भी उठती हैं।

मीडिया पर समाज में सार्थक बहस को आगे बढ़ाने का दायित्व था, लेकिन आज मीडिया का एक बड़ा हिस्सा खुद ही नफरत फैलाने का काम कर रहा है, ऐसे में आपको कोई उम्मीद दिखती है कि कोई बदलाव आएगा?
श्रावणी सरकार: इन हालात के बीच भी हम सुधार की उम्मीद नहीं छोड़ सकते। अगर उम्मीद छोड़ दी तो इंसान ख़त्म हो जाएँगे। इंसान 2-3 चीजों पर चलता है। उम्मीद उसमे एक बहुत बड़ी चीज़ है। हमें यह भी नहीं पता कि कल हम रहेंगे कि नहीं रहेंगे। लेकिन हम लोग 50 साल की भी प्लानिंग करते हैं। 20 साल की भी प्लानिंग करते हैं। 10 साल की भी प्लानिंग करते हैं। आगे आने वालों को दिक्कत न हो, यह हम करते हैं तो सिर्फ उम्मीद है। इसी तरह इन हालात की भी सुधरने की उम्मीद रखनी होगा, तभी तो आप कुछ करोगे। अगर यह सोच लें कि कुछ नहीं हो सकता तो आप ख़तम हो जाओगे। आप भी तो गलत फैसले के खिलाफ सिर्फ सोशल साइटस पर बोल कर चुप नहीं रह गए। लॉकडाउन के दौरान लोगों ने एक दूसरे की मदद की। लोगों ने साथ जुड़ने की कोशिश की। कदम उठाया। आज के हालात में तो आपको नहीं लग रहा कि कुछ बदल पाएगा। लेकिन ऐसे कदमों से ही आगे बदलाव आएगा।