UP election 2022

UP election 2022: प्रियंका गांधी के साथ ही कॉमरेडों का भी टेस्ट!

“प्रदेश में बिना मजबूत संगठन के काम चलता नहीं दिख रहा है, कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका वाले कॉमरेडों को भी पार्टी को सिर्फ सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर नहीं, जमीन पर भी उतारना होगा।”

UP election 2022कुमार रहमान,  वरिष्ठ पत्रकार और डिजिटल कंटेंट राइटर
UP election 2022: सियासत में विचारधारा अब मायने नहीं रखती, क्योंकि सत्ता का सुख ही सबसे अहम विचार है। यही वजह है कि तमाम जगहों पर कम्युनिस्ट पार्टी के तमाम नेता बड़ी उलटबांसी करते हुए लेफ्ट से सीधे राइट हो गए। एक दशक पहले तक कम्युनिस्ट पार्टी के लोग कांग्रेस या दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों में ही जाया करते थे। हालांकि तब भी इसे अच्छा नहीं समझा जाता था और इसकी आलोचना होती थी। सीपीआईएमएल-लिब्रेशन जैसी वैचारिक प्रतिबद्धता वाली पार्टी के कॉमरेडों में भी पिछले एक दशक में तेजी से विचलन शुरू हुआ है।

छुटपुट लोग पहले भी कांग्रेस का दामन थामते रहे हैं, लेकिन इसमें तेजी उस वक्त आई जब यूपी कांग्रेस की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी बनाई गईं। भाकपा माले-लिबरेशन की इस स्टूडेंट विंग के बहुत सारे होनहार कॉमरेड रीता बहुगुणा जोशी के संरक्षण में कांग्रेसी हो गए। इसमें फिर से तेजी आई है। इसकी शुरुआत तीन साल पहले जेएनयू के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष संदीप सिंह के साथ हुई। बताते हैं कि प्रियंका गांधी उन्हीं की सलाह पर फैसले लेती हैं। संदीप सिंह के बाद यूपी कांग्रेस में वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग बड़ी संख्या में गए हैं। लगा जमीनी स्तर पर बड़े बदलाव नजर आएंगे। कांग्रेस पार्टी धरातल पर उतर कर मजबूती से काम करेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

कहीं प्रियंका के झाड़ू देने का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल किया जाने लगा तो कहीं सीएए आंदोलन के दौरान उनका स्कूटर पर पीछे बैठा हुआ वीडियो वायरल किया गया। यह वीडियो चर्चा जरूर बनाते रहे, लेकिन वोट आधार नहीं। जमीन से कट जाने की वजह से जिस तरह के कम्युनिस्ट पार्टी हाशिये पर चली गई, उसी कम्युनिस्ट पार्टी से आए थके-हारे लोग कांग्रेस का कितना और किस तरह से भला करेंगे, इसके नतीजे यूपी चुनाव में सामने आ गए हैं, जबकि देश की सबसे पुरानी पार्टी यूपी की सबसे नई राजा भइया की जनसत्ता दल लोकतांत्रिक के बराबर पहुंच गई है। दोनों ही पार्टियों के दो-दो विधायक यूपी चूनाव में जीते हैं।

मीडिया में चर्चा है कि प्रियंका गांधी अपने पहले टेस्ट में फेल हो गईं, लेकिन यूपी कांग्रेस के अंदर प्रियंका के इर्द-गिर्द जमा कॉमरेडों पर भी सवाल उठ रहे हैं। इसकी वजह यह है कि प्रियंका गांधी के सलाहकार की भूमिका निभा रहे संदीप सिंह के अलावा सोशल मीडिया और मीडिया प्रवक्ता का प्रभार संभालने वाले लोग भी भाकपा-माले लिबरेशन से जुड़े हुए लोग ही हैं। इसके अलावा कई और जगहों पर वह अपनी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। संदीप सिंह के बारे में तो मीडिया रिपोर्टों में यहां तक कहा गया है कि बिना उनकी इजाजत के प्रियंका गांधी तक पहुंच बनाना मुमकिन नहीं है। पार्टी के भीतर पहले से ही इनका विरोध था। यूपी चुनाव नतीजों के बाद यह आलोचना ज्यादा मुखर हुई है। सवाल उठ रहे हैं कि यह लोग अगर इतने ही गुणी थे तो यूपी में कम्युनिस्ट पार्टी का ऐसा बुरा हस्र आखिर क्यों हुआ?

हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में प्रिंयका गांधी ने चालीस फीसदी महिलाओं को टिकट देने का एलान किया था। उन्होंने कुल 144 महिला प्रत्याशी मैदान में उतारे। इनमें से सिर्फ एक प्रत्याशी रामपुर खास विधानसभा क्षेत्र से आराधना मिश्रा ही जीत सकीं। प्रियंका गांधी ने टिकट देने से पहले ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ पंच लाइन के साथ एक मीडिया कैंपेन भी चलाया था। शुरुआत में इसकी खासी चर्चा भी रही, लेकिन यह कैंपेन धरातल पर नहीं उतर सका। नतीजे में 137 महिला प्रत्याशी अपनी जमानत भी नहीं बचा सकीं। आधी आबादी को सिसायत के मंच पर लाने की प्रियंका की यह सोच तब सीटों में तब्दील हो सकती थी, जबकि यह कैंपेन महिला वोटरों तक भी पहुँच पाता।

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देश में मीडिया और सोशल मीडिया का सबसे बेहतर अगर किसी पार्टी ने इस्तेमाल किया है तो वह है बीजेपी। पीएम मोदी कोई बात कहते हैं तो उसे गांव-मोहल्ले के आम आदमी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी उनके कैडर ही पूरी करते हैं। भाजपा के कार्यकर्ता एक-एक बात का तोड़ लोगों को कुछ इस तरह से समझाते हैं कि पढ़ा-लिखा आदमी भी कुछ देर के लिए जवाब नहीं दे पाता। कुछ महीने पहले एक प्राइवेट कार से लखनऊ जाते वक्त साथ चल रहे मीडिया के मित्र ने ड्राइवर से कहा कि पेट्रोल बहुत महंगा हो गया है। कैसे गुजारा करते हो? ड्राइवर का जवाब था, ‘साहब विकास चाहिए तो महंगा पेट्रोल तो लेना ही होगा।’ जाहिर बात है उस अनपढ़ ड्राइवर को यह बात इतनी ही सहजता से समझाई गई और उसने इसे भरपूर ग्रहण भी कर लिया। कांग्रेस को भी ऐसे ही मजबूत कार्यकर्ता की जरूरत है जो उसकी बातों को घर-घर सहजता के साथ पहुंचा सके। वरना सोशल मीडिया पर तो दिन भर लाखों मैसेज आते जाते रहते हैं।

कभी कांग्रेस इस देश की सबसे बड़ी कैडर वाली पार्टी हुआ करती थी। पंडित नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने कैडर बनाने और संगठन को मजबूत बनाए रखने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं किए। फिर जेपी आंदोलन के बाद कांग्रेस के कैडर में बिखराव हुआ। फिर उसे दुरुस्त करने की कोई कोशिश नहीं हुई। पंडित नेहरू के लगाए पेड़ के फल कांग्रेस कुछ दशक पहले तक खाती रही, लेकिन खुद कोई पेड़ नहीं लगाया। यही हाल पार्टी के अनुषांगिक संगठनों का हुआ। एनएसयूआई का एक तरह से वजूद ही खत्म हो गया। न युवा दल बचा है और न किसान संगठन ही सक्रिय है। महिला संगठन का भी कुछ ऐसा ही हाल है। आज बीजेपी की जो ताकत है, उसके पीछे उसके सहयोगी संगठन भी बड़ी वजह हैं, जो कांग्रेस के पास नहीं बचा है।

प्रियंका गांधी का यह पहला बड़ा टेस्ट था। कांग्रेसी प्रियंका गांधी को लंबे समय से राजनीति में लाने की मांग कर रहे थे। लोग उन्हें इंदिरा गांधी की प्रतिमूर्ति बता रहे थे। चुनाव नतीजों के नजरिए से देखें तो प्रियंका गांधी अपना असर नहीं डाल सकीं। हालांकि उनकी मेहनत और उनकी कोशिशों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वह जनवरी 2019 में पार्टी में आने के बाद से ही सक्रिय रहीं। हर मुद्दे पर मुखर हो कर सामने आईं। उन्होंने मौजूदा चुनाव में महिलाओं को सियासत के मंच पर लाने की भरपूर कोशिश भी की। संगठन न होने की वजह से उनकी कोशिशें वोट में तब्दील नहीं हुईं और 97 फीसदी उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई।

पिछले ढाई दशक से यूपी में क्रमिक तौर पर कांग्रेस असरहीन होती गई है। 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को 28 सीटें मिली थीं। 2017 के विधानसभा चुनाव में उसने सपा के साथ समझौता किया था। इसके बावजूद इस चुनाव में वह महज सात सीटें ही जीत सकी। आज हालात यह हैं कि तकरीबन सवा सौ साल पुरानी पार्टी महज कुछ साल पहले बने राजा भइया के दल की बराबरी पर आ गई है। कांग्रेस इस बात से सब्र कर सकती है कि उसकी सीटें बसपा से ज्यादा हैं।

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उत्तर प्रदेश में क्षेत्रीय दलों के उभार के साथ ही धीरे-धीरे कांग्रेस का जनाधार घटता गया। जो लोग कभी कांग्रेस को वोट दिया करते थे, अब वो भाजपा का वोटबैंक हैं। जाहिर बात है कि कांग्रेस का यह जनाधार अचानक ही नहीं खिसका है। हर चुनाव में उसकी सीटें कम से कमतर होती गईं। जब कांग्रेस यूपी में अपना जनाधार खो रही थी तो प्रियंका गांधी को राजनीति में लाने के लिए पार्टी नेताओं का दबाव कांग्रेस पर लगातार पड़ रहा था। इसके बावजूद पार्टी ने हमेशा उनके सियासत में आने से इनकार किया। वह 2004 के लोकसभा चुनाव की बात है। उस चुनाव में प्रियंका गांधी पहली बार अपनी मां सोनिया गांधी के लिए प्रचार करने के लिए कई मचों पर नजर आईँ। इसके बाद प्रियंका के सियासत के मैदान में आने को लेकर फिर से कयास लगाए जाने लगे, लेकिन उन्होंने दूरी बनाए रखी।

2017 के विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे थे। चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर कांग्रेस के साथ थे। उन्होंने पार्टी को सुझाव दिया कि प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश की कमान सौंप देनी चाहिए। पीके को पार्टी के कुछ बड़े नेताओं का साथ भी मिला, लेकिन कांग्रेस ने इससे इनकार कर दिया। इस तरह प्रियंका के पार्टी में आने न आने को लेकर हमेशा कयास लगाए जाते रहे। चर्चा होती रही। इस दौरान यूपी में बीजेपी की जमीन काफी मजबूत हो चुकी थी। 2017 के चुनाव में बीजेपी ने प्रचंड बहुमत से चुनाव जीता और उसे 312 सीटें मिलीं। इन चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया कि यूपी से जातिगत राजनीति अपनी परिणति पर पहुंच चुकी है। तब शायद कांग्रेस को पहली बार लगा कि प्रियंका के लिए हालात माकूल हैं या फिर इस चुनाव में मिली सात सीटों ने कांग्रेस को प्रियंका को यूपी की राजनीति में लाने को मजबूर कर दिया। वह साल 2019 की 23 जनवरी थी, जब प्रियंका के राजनीति में आने का कांग्रेस ने एलान कर दिया। प्रियंका को पार्टी का महासचिव बनाया गया और उनके कंधों पर पहली बार पूरे यूपी की जिम्मेदारी आ गई।

सियासत के मैदान में पूरी तरह से आने के बाद प्रियंका गांधी ने मुखर अंदाज अपनाया। वह हर मौके और मुद्दे पर न सिर्फ अपनी आवाज उठाती रहीं, बल्कि कई अवसरों पर सत्ता के खिलाफ संघर्ष करती भी नजर आईँ। हाथरस रेप केस में पीड़ित परिवार के साथ उनकी मुलाकात काफी चर्चा में रही, क्योंकि योगी सरकार ने उन्हें वहां जाने से रोकने के लिए एक तरह से पूरी मशीनरी ही लगा दी थी। सीएए और किसान आंदोलन के दौरान भी वह सक्रिय रहीं। उन्होंने महिला सुरक्षा और रोजगार के मुद्दे को भी मुखरता से उठाया, लेकिन प्रदेश में बिना मजबूत संगठन के काम चलता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका वाले कॉमरेडों को भी पार्टी को सिर्फ सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर नहीं, जमीन पर भी उतारना होगा।