इमारतों से ताली-थाली का शोर और तंग गलियों में भूख की मरोड़!

भोपाल जनसंपर्क समूह-1
सचिन श्रीवास्तव

बीते 18 दिनों में घर में रहने की हिदायतें हम सबको इतनी बार, इतनी तरह से मिली हैं, जितनी शायद पूरी उम्र में न कभी मिलीं, न मिलेंगी। कभी फोन पर, कभी व्हाट्सएप पर, कभी ईमेल में, कभी आमने सामने की बातचीत में।
जाहिर है यह वक्त घर पर रहने का ही है। सरकारी आदेश तो यही है। होना भी चाहिए। इससे इनकार नहीं कि यह वक्त खुद को, परिवार को, परिचितों को सुरक्षित रखने का है।
हममें से ज्यादातर ने इसे अपनाया हुआ है। अगले तीन दिन भी इस सरकारी आदेश और सामाजिक सहमति को निभाएंगे। फिर अगर हुआ तो लॉकडाउन के अगले 15 दिन भी ऐसा ही होगा। उसके बाद भी लगेगा कि अभी खतरा पूरी तरह नहीं टला है, तो हम फिर आगे भी महीनों तक घरों में कैद रहने की मानसिक तैयारी कर चुके हैं। कभी कभार आटा—दाल खरीदने सड़क पर गुजरेंगे। खाली सड़कों पर चुटकले बनाएंगे। फिर खतरे की आहट से सहमते हुए घरों में लौट जाएंगे।

लेकिन सवाल ये है कि इसके बावजूद कुछ लोग हैं, जो घरों में नहीं बैठ पा रहे हैं। भोपाल में मेरे जानने वालों में ऐस लोगों की तादाद करीब 70—80 के करीब है। ये लोग लॉकडाउन के बाद से ही घरों में न बैठकर तंग गलियों में घूम रहे हैं। पूरे भोपाल में। कभी पुलिस की झिड़क सुनते हैं, कभी प्रशासन की फटकार। कभी लॉकडाउन के लिए बने सरकारी पास के जरिये घूमते हैं, तो भी भोपाल की तंग आंकी बांकी और चक्करदार गलियों में से निकलकर पुलिस से बचते बचाते पूरे शहर को रौंद रहे हैं।

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ये भोपाल जनसंपर्क समूह के वे साथी हैं, जो कोरोना आपदा में भूखे पेटों को भरने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। जानते हैं कि इनकी पहुंच हर हाथ तक नहीं हो सकती है, लेकिन फिर भी जुटे हैं, जितना, जैसे, जब तक बन पड़ेगा, तब तक करने के लिए प्र​तिबद्ध।
मैंने युद्ध क्षेत्र की वे लड़ाइयां नहीं देखीं, जहां खून से लथपथ सैनिक आखिरी सांस तक लड़ने का हौसला समेटे जीत की हल्की आहट की दिशा में एक एक कदम बढ़ते हैं। लेकिन मैंने अब्दुल्ला को देखा है, दानिश को देखा है, सैफ, सुलेमान, अरविंद, यासिर, आशा, नदीम, निगहत, अर्शी, सीमा, जमा, उजैर, सना, हस्सान, इकरा, रश्मि, आयशा, जावेद बैग, मदीहा, नीना, प्रमोद, पवन, राजा, औरंगजैब, सचिन जैन, शाहिद, आमिर, शिवराज, तबस्सुम, उसरा, वसीम फातिमा, डॉ यासिर, युशूफ, रोमी….. एक अंतहीन सूची है। पूरे नाम कभी नहीं लिखे जा सकेंगे। मैंने इन्हें देखा है। इनके जज्बे को महसूस किया है।

आज अब्दुल्ला और सुलेमान के साथ काफी वक्त भोपाल की सड़कों पर था। फिर जम जम किचिन पहुंचा। यह मुख्य किचिन है। बरखेड़ी फाटक के बिल्कुल करीब। दानिश से पूछा— “कब तक करेंगे ये सब। कब तक एक एक हाथ में खाना थमाते रहेंगे।”

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जवाब वही— “जब तक कर सकते हैं, और क्या कर सकते हैं।”

कभी-कभी सचमुच का सवाल सामने आता है। क्या इन्हें मौत का खौफ नहीं है। अपनी न सही, क्या इन्हें अपने करीबियों के भी बीमारी के चपेट में आने का डर नहीं है। बिल्कुल है। निजी बातचीत में आंख की कोरों से यह दुख झरता भी है।

लेकिन उससे भी ज्यादा बड़ा खौफ उस मरोड़ का है, जो फोन पर उन्हें सुनाई देती है। कभी कोलार से, कभी करोंद से, कभी आनंद नगर से, कभी जिंसी से, कभी ईदगाह ​हिल, काजी कैंप, छोला कहीं से भी, कभी भी आवाज आती है। भूख की। राशन की मांग और ये सभी सक्रिय हो जाते हैं।

आगे से कोशिश रहेगी कि जनसंपर्क समूह के इन चेहरों से एक एक कर आपको मिलाउं। ताकि ये सनद रहे कि आप हम जब सरकारी आदेशों पर ताली थाली बजाने और रात को रोशनी से सराबोर करने में व्यस्त थे। तब भोपाल के मजदूरों, ठेले वालों, खोमचे वालों, प्लम्बर, मिस्त्री और ऐसे ही अन्य मेहनतकशों के घरों में खाना—राशन पहुंचाने में कुछ लोग जुटे थे।

और अंत में:  जनसंपर्क समूह के महत्वपूर्ण साथी यासिर का यह वीडियो। यह करीब चार—पांच दिन पहले का दुख है, जो प्रशासन के संपूर्ण लॉकडाउन के बाद उबरा था। इस दर्द को महसूस करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है।