Transgender

Transgender – कोविड का असर: बधाई देने को तरसी जुबानें

कोरोना काल में ट्रांसजेंडर (Transgender) समुदाय की मुश्किलें

सचिन श्रीवास्तव
भोपाल।
 कोविड—19 और इसके कारण लगे लॉकडाउन के दौरान विभिन्न समुदायों और वर्गों की मुश्किलों का कोई अंत नहीं था। इनके बारे में कमोबेश लिखा भी खूब गया, लेकिन जिन समुदायों की मुश्किलों पर बेहद कम ध्यान गया है, उनमें से एक ट्रांसजेंडर (Transgender) हैं। दूसरों की खुशियों को अपनी हंसी से गुलजार करने वाले ट्रांसजेंडर (Transgender) समुदाय की मुश्किलों पर अव्वल तो बात ही कम हुई, और अगर हुई भी तो बेहद सतही ढंग से।

इसी दर्द को चेहरे पर लाये बिना भोपाल की रवीना (परिवर्तित नाम) कहती हैं— शुरू में थोड़ी दिक्कत हुई लेकिन बाद में खाना और राशन की समस्या ज्यादा नहीं थी, लेकिन भैया सिर्फ पेट की जरूरत नहीं होती। आसपास के लोग जब देखकर भी अनदेखा करते हैं, दूरी बनाते हैं, तो उसकी तकलीफ बड़ी होती है। रवीना के इस दार्शनिक विचार को खोलते हुए उनकी दोस्त सुमन बताती हैं कि कोरोना के पहले सारे शहर को बधाई देते थे, तो सबसे हंसते—बोलते भी थे। अब किसी के घर में लल्ला या लक्ष्मी आती है, तो वे दूर से ही आशीर्वाद देने को कहते हैं। बच्चे को छूकर उसके गालों को सहलाकर जो खुशी हमें मिलती थी, अब वो न जाने कब मिलेगी। वे कहती हैं— बड़े घरों में पहले भी सेनिटाइजर से हाथ साफ करके ही हम बच्चों को गोद में लेते थे, लेकिन अब तो चाहे एक—दो सप्ताह से बधाई देने तो जाने लगे हैं, लेकिन बच्चों को छूने पर पूरी तरह पाबंदी है।

रवीना और सुमन के साथ भोपाल के सुभाष फाटक इलाके में बधाइयां देने वाली रज्जो, कपूरी और निशा भी कुछ इसी तरह की बात करती हैं। रज्जो बताती हैं— सामने भले ही कुछ न कहें लेकिन एक दूरी बनाकर तो सभी पहले भी रखते थे। अब कोरोना ने उन्हें अच्छा बहाना दे दिया है। उन्होंने बताया कि मार्च के आखिरी सप्ताह में लॉकडाउन के बाद खाने पीने के सामान की समस्या आई थी। लेकिन बाद में कुछ संस्थाओं ने और कुछ हम लोगों ने अपने संपर्क से व्यवस्था कर ली। हालांकि सरकार की ओर से मिलने वाली मदद से वे इनकार करती हैं। लेकिन दिक्कत अब शुरू हो गई है। अभी तक तो जमा पूंजी के जरिये खर्च चलाया है, लेकिन आगे न तो बहुत बधाई से कमाई होने वाली है, और हम लोगों को और कोई काम तो मिलता नहीं, तो देखते हैं आगे क्या होता है।

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वे कहती हैं कि हमारा मुख्य काम तो लोगों की खुशियों में शामिल होकर उनकी खुशी को बढ़ाना ही है। लेकिन अब लॉकडाउन खुलने के बाद भी ज्यादा कार्यक्रम तो हो नहीं रहे हैं, तो कमाई पर भी असर पड़ा है। सामान्य दिनों की अपेक्षा 20 प्रतिशत ही बधाई राशि मिल रही है। वह भी बहुत मिन्नतों के बाद।

निशा कहती हैं कि शादी और पारिवारिक कार्यक्रम न के बराबर हो रहे हैं। गीत-संगीत के कार्यक्रम भी कम ही होते हैं, तो काम पर असर तो बहुत पड़ा है। छह महीने से जमा पूंजी के जरिये जैसे तैसे खर्च चलाया है, लेकिन अब हालत खराब होने लगी हैं। आगे मुश्किलें बढ़ेंगी इसका अंदाजा तो होने लगा है।

कोरोना से मौत हुई तो था डर का माहौल
देश में ट्रांसजेंडर (Transgender)  समुदाय में कोरोना से पहली मौत भोपाल में ही दर्ज की गई थी। मई के दूसरे सप्ताह में इस दुखद खबर के बाद स्थानीय ट्रांसजेंडर (Transgender) समुदाय में डर था कि कभी भी प्रशासन उन्हें उठाकर कोविड सेंटर ले जा सकता है। उस दौरान लगातार कई लोगों के कोविड टेस्ट भी हुए और कई साथी पॉजिटिव आए। उस दौर को याद करते हुए निशा कहती हैं— बस सांस अटकी हुई थी। रात—रात भर जागते थे। लगता था कि आज जिसे देख रहे हैं, उसे कल देख भी पाएंगे या नहीं।

बाहर निकलना हुआ था दूभर
सुमन कहती हैं कि हमें पुलिसवाले जानते हैं। इसलिए जब हम कोई सामान खरीदने या किसी को दवा लेने भी निकलते हैं, तो पुलिसवालों को लगता था कि हम अपने काम से किसी के घर बधाई लेने जा रहे हैं, और वो सख्ती से हमें अपनी गली में रोक देते थे। यह बहुत से ट्रांस साथियों के साथ हुआ। वे कहती हैं कि हमारी गली में खाना बांटने वाले जो आते थे, उनको भी पुलिस दूर से भगा देती थी। दूसरी गलियों में खाना बांटने पर पुलिस परेशान नहीं करती थी, लेकिन हमारे पास आने देना उन्हें गंवारा नहीं था।

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कई लोग रहते हैं एक साथ इसलिए कोरोना है घातक
भोपाल में ट्रांसजेंडर (Transgender) समुदाय के साथी ज्यादातर तंग बस्तियों में एक ही मकान में दर्जन और दो दर्जन की तादाद में रहते हैं। इस कारण इनमें कोरोना फैलने का खतरा ज्यादा होता है। आइसोलेशन भी बस नाम के लिए ही होता है।

ताली बजाना मजबूरी है, शौक नहीं
सुमन कहती हैं कि अक्सर लोग मानते हैं कि हमारी कमाई बहुत होती है, लेकिन यह भ्रम है। असल में तो हमें ताने ही ज्यादा सुनने को मिलते हैं कि बस ताली बजाकर ही कमा लेते हो। लेकिन यही समाज के लोगों से और कोई काम मांगो तो नजरें फेर लेते हैं। वे कहती हैं कि हम तो घरों में झाडू—पोंछा भी करने को तैयार हैं, लेकिन लोग हमें बस अपने आंगन तक ही आने की इजाजत देते हैं। इसके आगे तो हमारे लिए कोई जगह है ही नहीं। कोरोना ने तो आंगन की जगह भी छीन ली है।

यह हैं ट्रांसजेंडर (Transgender) समुदाय की मुश्किलें
— मांगलिक उत्सव, शादी विवाह में नहीं मिल रहा है बधाई का काम
— बच्चों के पैदाइश पर छूने और घरों में जाने से हैं महरूम
— छह महीने में जमा पूंजी हुई खत्म, अब आगे कमाई लगभग शून्य
— कई ट्रांसजेंडर हैं बीमार, इलाज में आ रही मुश्किलें
— राशन कार्ड नहीं तो कोई सरकारी सहायता भी नहीं मिलती
— कोई अन्य रोजगार करने पर समाज का सहयोग नहीं मिलता