Revolutionary Practices

Revolutionary Practices: प्रोफेसरों के बहाने उच्च-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के बारे में चंद हानिकारक बातें

कविता कृष्णपल्लवी

जमीनी राजनीतिक कार्यकर्ताओं (Revolutionary Practices) और सिंद्धांतकारों के बीच तनाव नया नहीं है। बैठकखानों और क्लासरूमों में इतिहास की घटनाओं के जरिये नए बनते भविष्य को देखने, समझने की एकांगी कोशिशों की आलोचना भी भरपूर हुई है। इसी क्रम में हाल ही में राजनीतिक—सांस्कृतिक कार्यकर्ता कविता कृष्णपल्लवी ने सोशल मीडिया फोरम पर उपरोक्त टिप्पणी की है। इस टिप्पणी में उन्होंने प्रोफ़ेसर का रूपक लेते हुए उच्च-मध्य वर्गीय बुद्धिजीवियों पर जरूरी विचार साझा किए हैं।

जब क्रांति की लहर आगे की ओर गतिमान होती है तो प्रोफ़ेसर लोग क्रांतिकारियों के व्यवहार और सिद्धांत से सीखते हैं I जब गतिरोध का समय होता है तो बहुतेरे क्रांतिकारी प्रोफेसरों से क्रांति के विज्ञान की शिक्षा लेने लगते हैं I

दुनिया का इतिहास बनाने वाले आम लोगों को आजतक प्रोफेसरों ने नहीं बल्कि क्रांतिकारियों ने नेतृत्व दिया है I

दुनिया का सारा ज्ञान उत्पादन और वर्ग-संघर्ष की प्रयोगशालाओं-कार्यशालाओं में पैदा हुआ है I प्रोफ़ेसर लोग तो उसकी मात्र व्याख्याएँ करते हैं, जो प्रायः अधूरी, आंशिक या विरूपित हुआ करती हैं I प्रोफ़ेसर लोग दुनिया के क्रांतिकारी प्रयोगों से पैदा हुए ज्ञान के आधार पर अपने नए-नए बेवकूफी भरे अमूर्त सिद्धांत गढ़ते हैं और उसी की रोटी खाते हैं I

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बेशक प्रोफेसरों को भी ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए, लेकिन भरपूर आलोचनात्मक सजगता के साथ I तभी उनकी अधूरी, एकांगी, मनोगतवादी व्याख्याओं से भी कुछ हासिल किया जा सकता है I प्रोफेसरों का लेखन प्रायः खंडन और आलोचना के लिए उकसाता है और इस प्रक्रिया में क्रांतिकारियों को अपनी समझ साफ़ करने में मदद मिलती है I

मार्क्सवाद के धुरंधर माने जाने वाले दुनिया के अधिकांश प्रोफ़ेसर शास्त्रीय मार्क्सवाद की प्रचलित शब्दावली का इस्तेमाल करने में अपनी हेठी समझते है, इसलिए वे अपनी नयी टर्मिनोलॉजी गढ़ते हैं और अपनी कहन-शैली अनूठी बनाते हैं जिससे कुछ नयेपन के चमत्कार का अहसास हो I

प्रोफ़ेसर लोग क्रांतियों के इतिहास-विषयक अपने ज्ञान से शासक वर्ग को यह बताने में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं कि क्रांतियों को रोका कैसे जा सकता है ! इस काम में रिटायर्ड क्रांतिकारी उनका साथ बखूबी निभाते हैं I

प्रोफ़ेसर यदि क्रांति का साथ भी देता है तो उसकी पूरी रॉयल्टी वसूलता है I वह सांस्कृतिक-बौद्धिक जन-संगठनों में ऊँचे-ऊँचे पद चाहता है और कार्यकर्ताओं के मार्क्सवाद के क्लास लगाना चाहता है I समाजवाद यदि आ जाये तो प्रोफ़ेसर तभीतक उसका साथ देंगे जबतक उनके बुर्जुआ विशेषाधिकारों पर आंच न आये I जैसे ही उनकी विशेष सुविधाएँ छिनेंगी, तनख्वाहों और सभी नागरिक सुविधाओं में बराबरी लाने की शुरुआत होगी वैसे ही प्रोफ़ेसर लोग समाजवाद से असंतुष्ट और नाराज हो जायेंगे और उसे व्यक्तिगत स्वातंत्र्य-विरोधी, निरंकुश, सर्वसत्तावादी आदि-आदि घोषित करने लगेंगे I

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प्रोफ़ेसर का हम लगभग एक रूपक के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं I यह बात अधिकांश उच्च-मध्य वर्गीय बुद्धिजीवियों के साथ लागू होती है I

भारत में जो भी थोड़े-बहुत जेनुइन विद्वान मार्क्सवादी प्रोफ़ेसर थे इतिहास, अर्थशास्त्र, साहित्य या समाज विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में, जिनसे तमाम राजनीतिक-वैचारिक मत-भिन्नता के बावजूद कुछ सीखा जा सकता था, वे या तो दिवंगत हो चुके हैं या क़ब्र में पैर लटकाए हुए हैं I ये जो नए -नए नव-मार्क्सवादी, उत्तर-मार्क्सवादी, उत्तर-आधुनिकतावादी प्रोफेसरों की नयी पीढी खद्योत समान नीम अँधेरे और नीम उजाले में भकभका और भटक रही है, ये सभी समाज-विमुख, संघर्ष-विमुख, कायर, कैरियरवादी, अपढ़, कुपढ, मूर्ख और सत्ताधर्मी हैं I ज्यादातर मामलों में ये काहिल, विलासी, लम्पट और दारूकुट्टे भी हैं — बौद्धिक अध्यवसाय और परिशुद्धता से पूर्णतः दूर I ये ख़तरनाक वायरस फ़ैलाने वाले गंदे जीव हैं जो बौद्धिक क्षेत्र के ज़हीन नौजवानों के बीच व्यक्तिवाद, कैरियरवाद, जन-विमुखता, कूपमंडूकता और ‘विद्वत्तापूर्ण मूर्खता’ की सांघातिक बीमारी फैला रहे हैं I