दीपक मिश्रा की विदाई और कुछ जरूरी सवाल

सचिन श्रीवास्तव

भारतीय न्याय व्यवस्था पर हाल के सालों में कई बहसें हुई हैं, लेकिन मौटे तौर पर उनका हासिल अभी जनता के पक्ष में नहीं निकला है। पहले भी न्याय व्यवस्था अमीरों की ओर झुकी हुई थी और आज भी हालात जस के तस हैं। बुधवार 6 मई को सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए जस्टिस दीपक गुप्ता ने अपने वर्चुअल विदाई समारोह में फिर इसी बात को कहा। उपरी तौर पर भारत की न्याय व्यवस्था की कमियों और उन्हें दूर करने के उपायों पर चर्चा शुरू करने की बात बेहद अच्छी लगती है, लेकिन असल में हर पूर्व न्यायाधीश इस तरह के भाषणों से ही अपने शानदार न्यायिक कॅरियर का अंत करते रहे हैं। जस्टिस गुप्ता ने भी न्यायपालिका की अपनी चार दशक से भी ज्यादा की सेवा अ​वधि में बतौर जज कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए और अपने आखिरी भाषण में अन्य न्यायाधीशों की तरह न्यायपालिका में सुधार की ओर ध्यान दिलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।

सवाल यह है कि यह न्यायाधीश अपने फैसलों में अपनी टिप्पणियों में यह क्यों नहीं लिख पाए। या फिर पद पर रहते हुए उन्होंने क्यों नहीं इसके लिए ठोस कदम उठाए। माननीय दीपक गुप्ता के ही वक्त में सुप्रीम कोर्ट में सेलिब्रिटी टीवी न्यूज एंकर अर्नब गोस्वामी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में 23 अप्रैल की शाम आठ बज कर सात मिनट पर दायर होती है, और उनकी अपील पर सुनवाई के लिए अगली ही सुबह 10.30 बजे का समय दे दिया गया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट से प्रवासी श्रमिकों के लिए मदद मांगने वाली एक याचिका जो 15 अप्रैल को दायर की थी उस पर पहली सुनवाई 27 अप्रैल को हुई।

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जाहिर है विदाई भाषणों में कही गई उम्दा बातें महज बातें हैं। जिसमें पहले अपनी जीवन यात्रा के बारे में बताया जाता है, फिर न्याय व्यवस्था की समीक्षा, फिर इसकी खामियों की ओर इशारा और फिर आने वाली पीढ़ी के हिस्से में सुधार की सारी कार्रवाइयों की जिम्मेदारी छोड़कर अपने मित्रों, पूर्वजों की महानता पर कसीदेकारी।

जस्टिस गुप्ता ने जो कुछ कहा उसे आप असल में पहले से जानते हैं
जैसे वे कहते हैं
“देश का कानून और कानूनी प्रणाली अमीर और ताकतवर लोगों की तरफ झुके हुए हैं।”
बिल्कुल झुके हुए हैं, लेकिन आप ये बात अब कह रहे हैं, पहले कहते तो शायद आप सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष पर न पहुंचते।
“कोई अमीर और ताकतवर व्यक्ति सलाखों के पीछे होता है तो वो कभी ना कभी अपने मामले में सुनवाई को प्राथमिकता दिलवा ही लेता है और अगर वो बेल पर होता है तो वो सुनवाई को लटकता चला जाता है।” इस बात से देश का बच्चा बच्चा वाकिफ है।
“खामियाजा गरीब वादी को उठाना पड़ता है क्योंकि वो इन अदालतों पर दबाव नहीं डलवा सकता और उसकी सुनवाई आगे खिसक जाती है।” इस तथ्य से परिचित सामान्य मजदूर से लेकर संसद के नीति निर्माता तक सभी हैं, लेकिन करेंगे कुछ नहीं।
“अमीर और गरीब के इस संघर्ष में न्याय के तराजू के पलड़ों का हमेशा वंचितों की तरफ झुकाव होना चाहिए, तभी पलड़े बराबर हो पाएंगे।” उफ क्या बात कह दी गुप्ता जी, दिल ही जीत लिया।

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आपको उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं