अमेरिका: लोकतंत्र का ठेकेदार या जनक्रांतियों का दुश्मन?
सचिन श्रीवास्तव
अगर हाल ही में जेलेंस्की और ट्रंप के बीच हुई बातचीत पर नजर डालें, तो साफ दिखता है कि अमेरिका की वैश्विक धाक अब ढलान पर है। जिस देश ने दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने का ठेका ले रखा था, वही लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने में सबसे आगे रहा है। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। अमेरिका अब अकेली महाशक्ति नहीं रहने वाला।
कैसे बना अमेरिका जनक्रांतियों का दुश्मन?: अमेरिका हमेशा से खुद को लोकतंत्र और आजादी का रक्षक बताता रहा है, लेकिन हकीकत में उसने उन्हीं आंदोलनों को कुचला जो उसके आर्थिक और सामरिक हितों के खिलाफ थे। इतिहास गवाह है कि अमेरिका ने वामपंथी क्रांतियों, स्वतंत्रता संग्रामों और राष्ट्रवादी सरकारों को अस्थिर करने के लिए हर हथकंडा अपनाया। आइए, इसे समझने के लिए इतिहास के कुछ अहम पड़ावों पर नजर डालते हैं।
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रूसी क्रांति और अमेरिका का डर (1917-1945): 1917 में जब रूस में क्रांति हुई, तो अमेरिका को लगा कि समाजवाद पूरी दुनिया में फैल जाएगा। इसी डर से उसने रूसी गृहयुद्ध (1918-20) में दखल दिया और ज़ार समर्थकों (व्हाइट आर्मी) की मदद की। 1920 के दशक में अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों ने सोवियत संघ को घेरने के लिए आर्थिक नाकेबंदी कर दी।
अमेरिका ने अपने देश में भी “रेड स्केयर” नाम से अभियान चलाया, जिसमें वामपंथियों को दुश्मन बताकर दबाया गया। यही नहीं, दुनिया के कई देशों में वामपंथी आंदोलनों को कुचलने के लिए अमेरिकी नीतियों को लागू किया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध और शीतयुद्ध (1945-1991): दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने “मार्शल प्लान” (1948) के तहत यूरोप को आर्थिक मदद देकर साम्यवाद से दूर रखा। 1947 में “ट्रूमैन डॉक्ट्रिन” के तहत उसने वामपंथी विचारधारा के खिलाफ अभियान छेड़ा।
- इसके बाद CIA ने दुनिया के कई देशों में लोकतांत्रिक सरकारों को गिराने का काम किया:
– ईरान (1953): प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसाद्दिक की सरकार गिराई, क्योंकि उन्होंने तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया था।
– ग्वाटेमाला (1954): राष्ट्रपति जैकोबो अर्बेंज की सरकार का तख्तापलट किया।
– इंडोनेशिया (1965): CIA ने जनरल सुहार्तो के जरिए लाखों कम्युनिस्टों की हत्या करवाई।
वियतनाम युद्ध और अमेरिकी दखल (1955-1975): अमेरिका ने दक्षिण वियतनाम में तानाशाही सरकार का समर्थन किया और 20 लाख से अधिक लोगों की जान लेने वाले वियतनाम युद्ध (1955-75) को अंजाम दिया। अमेरिका को लगा कि अगर वियतनाम में साम्यवाद सफल हुआ, तो अन्य देश भी इसका अनुसरण करेंगे (डॉमिनो थ्योरी)।
इसी रणनीति के तहत अमेरिका ने चिली (1973) में साल्वाडोर अलेंदे की लोकतांत्रिक सरकार गिराकर जनरल पिनोशे को सत्ता दिलाई। हालांकि, वियतनाम में अमेरिका की हार ने दुनिया को दिखाया कि जनता को हमेशा दबाया नहीं जा सकता।
सोवियत संघ का पतन और अमेरिका की बादशाहत (1991-2001): सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका ने खुद को अकेली महाशक्ति मान लिया। उसने “शॉक थैरेपी” नीति के जरिए पूर्व सोवियत देशों की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया।
यूगोस्लाविया (1999): अमेरिका ने नाटो के जरिए सर्बिया पर हमला किया और इसे टुकड़ों में बांट दिया। इस दौरान अमेरिका वैश्विक राजनीति का इकलौता संचालक बन गया और IMF, वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं को अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगा।
इराक युद्ध और अमेरिकी साम्राज्यवाद (2001-2011): अमेरिका ने “9/11” के बाद “आतंकवाद के खिलाफ युद्ध” (War on Terror) का नारा दिया और:
– अफगानिस्तान (2001): तालिबान को हटाने के बहाने युद्ध छेड़ा, लेकिन बाद में अपनी कठपुतली सरकार बैठाई।
– इराक (2003): झूठे “Weapons of Mass Destruction” (WMD) के नाम पर हमला किया और सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल किया।
इन युद्धों में लाखों निर्दोष नागरिक मारे गए और मध्य पूर्व में स्थायी शांति कभी नहीं आ पाई।
ढलान पर अमेरिका की सत्ता: बीते सौ सालों में अमेरिका ने लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर कई जनतांत्रिक आंदोलनों को कुचला। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं।
नए खिलाड़ी उभर रहे हैं:
– चीन और रूस अब अमेरिकी दबदबे को चुनौती दे रहे हैं।
– ब्रिक्स (BRICS) देश अमेरिकी वर्चस्व को कमजोर करने की दिशा में बढ़ रहे हैं।
– डॉलर के मुकाबले नई मुद्राएं सामने आ रही हैं, जिससे अमेरिकी आर्थिक दबदबा कम हो रहा है।
साफ है कि अगर किसी देश को अपने लोकतंत्र और संप्रभुता को बचाना है, तो उसे:
– आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करनी होगी।
– तकनीकी आत्मनिर्भरता अपनानी होगी।
– कूटनीतिक विवेक से निर्णय लेने होंगे।
तभी कोई बाहरी ताकत—चाहे अमेरिका हो या कोई और—किसी देश के लोकतंत्र को कमजोर करने का मौका नहीं पा सकेगी।