Three Language Formula India controversy

त्रिभाषा फ़ॉर्मूला: भाषा विवाद की राजनीतिक आंच

Three Language Formula India controversyसचिन श्रीवास्तव
त्रिभाषा फ़ॉर्मूले (Three-Language Formula) पर हिंदी में जो बहस चल रही है, उसकी ऐतिहासिक जड़ें, इसके पीछे की राजनीतिक मंशा, भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक वर्चस्व की राजनीति और इसे पूंजीवादी राज्य की शिक्षा नीति के संदर्भ में समझे बगैर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी में की गई मूर्खता होगी। त्रिभाषा फ़ॉर्मूले पर विवाद महज भाषा की शिक्षा का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह सत्ता, संस्कृति और सामाजिक वर्चस्व से जुड़ा सवाल भी है। हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया है कि राज्य को 2,152 करोड़ रुपये की समग्र शिक्षा निधि जारी नहीं की क्योंकि राज्य ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत त्रिभाषा फ़ॉर्मूले को स्वीकार नहीं किया। यह विवाद केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे भारत में भाषा, सत्ता और सांस्कृतिक आधिपत्य से जुड़ी बहसों को उजागर करता है।

अफसोस हिंदी के कई बौद्धिक या तो अपनी पूर्व निर्धारित मान्यताओं पर विचार नहीं कर पा रहे हैं, या फिर वे हिंदी प्रेम में भाषाई साम्राज्यवाद की गहरी साजिश को नहीं समझ पा रहे हैं। असल में, त्रिभाषा नीति पर विवाद यह दिखाता है कि भारत में शिक्षा नीति सिर्फ अकादमिक सुधार का सवाल नहीं, बल्कि सत्ता, संस्कृति और पूंजीवाद का हिस्सा है। इसे सिर्फ भाषा की बहसके रूप में नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक संघर्ष के रूप में देखना होगा।

सबसे पहले त्रिभाषा फार्मूले की ऐतिहासिकता को समझते हैं। भारत में भाषा नीति की बहस आज़ादी के तुरंत बाद ही शुरू हो गई थी। 1948-49 में राधाकृष्णन आयोग ने सुझाव दिया कि स्कूलों में राज्य की भाषा, हिंदी और अंग्रेज़ी पढ़ाई जाए। इसके बाद 1955 के मुदलियार आयोग ने द्विभाषा फ़ॉर्मूले का सुझाव दिया, जिसमें राज्य की भाषा के साथ हिंदी को अनिवार्य किया गया था और तीसरी भाषा को वैकल्पिक रखा गया। लेकिन 1968 में कोठारी आयोग की सिफारिशों के बाद इसे त्रिभाषा नीति का रूप दिया गया, जिसे पहली बार उसी साल लागू भी किया गया।

क्या थी त्रिभाषा नीति

1. उत्तर भारत: हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी, अंग्रेज़ी और एक अन्य भारतीय भाषा (दक्षिण भारतीय भाषा को प्राथमिकता) सिखाई जाएगी।

2. दक्षिण भारत: गैरहिंदी भाषी राज्यों में उनकी मातृभाषा, अंग्रेज़ी और हिंदी पढ़ाई जाएगी।

Three Language Formula India controversyहालांकि, यह नीति व्यवहार में कभी ईमानदारी से लागू नहीं हुई। उत्तर भारत में संस्कृत या उर्दू को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाने लगा, जबकि दक्षिण भारतीय राज्यों ने हिंदी को अनिवार्य करने का विरोध किया।

तमिलनाडु इसका सबसे बड़ा विरोधी रहा। 1937 में जब सी. राजगोपालाचारी ने हिंदी को अनिवार्य बनाने की कोशिश की तो व्यापक आंदोलन हुआ। इसके बाद 1965 में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाए जाने के विरोध में पूरे तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शन हुए, जिसमें कई लोग मारे गए। आखिरकार केंद्र सरकार को हिंदी को अनिवार्य बनाने की योजना स्थगित करनी पड़ी।

इसी के साथ तमिलनाडु ने द्विभाषा नीति (तमिल और अंग्रेज़ी) को अपनाया और त्रिभाषा फ़ॉर्मूले को खारिज कर दिया। वहां इस नीति का पालन आज भी जारी है। जाहिर है इसके पीछे व्यावहारिक राजनीति भी थी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 और त्रिभाषा विवाद

हाल ही में NEP 2020 ने त्रिभाषा नीति को बनाए रखा, लेकिन इसे लचीलाबनाने की बात कही है। इसमें कहा गया है कि छात्रों को तीन भाषाएं सीखनी होंगी, लेकिन इसमें से दो भारतीय भाषाएं होनी चाहिए। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि कोई राज्य हिंदी को अनिवार्य किए बिना भी त्रिभाषा नीति लागू कर सकता है।

हालांकि, व्यावहारिक रूप से इसमें कई समस्याएं हैं। पहली है भाषा और सत्ता का समीकरण। हिंदी को बढ़ावा देने की नीति से गैरहिंदी भाषी राज्यों को यह लगता है कि यह उत्तर भारतीय वर्चस्व और सांस्कृतिक आधिपत्य स्थापित करने की कोशिश है। स्टालिन और अन्य तमिल नेता इसे हिंदी थोपनेकी साजिश मानते हैं।

दूसरे, शिक्षा पर वित्तीय नियंत्रण भी इससे मजबूत होता है। केंद्र सरकार ने तमिलनाडु के 2,152 करोड़ रुपये रोक लिए हैं क्योंकि उसने त्रिभाषा नीति स्वीकार नहीं की। इसका अर्थ यह है कि राज्य को अपनी भाषा नीति के लिए आर्थिक दंड दिया जा रहा है। यह साफ करता है कि केंद्र भाषा के नाम पर राज्यों पर नियंत्रण चाहता है।

तीसरी बात है, संस्कृत का बढ़ता प्रभाव। NEP 2020 में संस्कृत को तीसरी भाषाके रूप में प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिससे यह साफ होता है कि हिंदी सिर्फ मुखौटा है, असली योजना संस्कृत को बढ़ावा देना है।

असल में, उत्तर भारत में त्रिभाषा नीति की लगातार अनदेखी की गई है, जो इस विवाद की जड़ भी है। त्रिभाषा नीति के तहत उत्तर भारत में तीसरी भाषा के रूप में दक्षिण भारतीय भाषा पढ़ाई जानी थी, लेकिन यहां संस्कृत और उर्दू को बढ़ावा दिया गया। यह इस नीति के साथ विश्वासघात था।

यह तो हुई ऐतिहासिक तथ्यों और ताजा विवाद की पृष्ठभूमि, लेकिन असल में त्रिभाषा फार्मूले का पूरा प्रपंच ही घनघोर साम्राज्यवादी मानसिकता, अवसरवाद और भाषाई राजनीति के तहत बंटवारे के पेंच—ओ—खम में उलझा हुआ है।

यह किसी से छुपा नहीं है कि पूंजीवादी समाज में भाषा महज संवाद का माध्यम नहीं होती है, बल्कि यह सत्ता, वर्गसंघर्ष और वैचारिक वर्चस्व का उपकरण भी होती है। मार्क्सवाद हमें यह समझने में मदद करता है कि त्रिभाषा नीति को लागू करने के पीछे सिर्फ शिक्षा नहीं, बल्कि सत्तासंबंधों का सवाल भी निहित है।

भाषा और वर्ग संघर्ष को परखने से यह साफ हो जाता है कि पूंजीवादी राज्य शिक्षा नीति को इस तरह से लागू करता है कि वह एक खास वर्ग के लिए सुविधाजनक हो। अंग्रेज़ी उच्च वर्ग और शहरी मध्यवर्ग की भाषा है, जबकि हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाएं श्रमिक वर्ग और ग्रामीण जनता की भाषा बनी रहती हैं। त्रिभाषा नीति के बहाने हिंदी को थोपना भाषा के जरिये श्रमिक वर्ग और गैरहिंदी भाषी समुदायों को कमजोर करने की साजिश का हिस्सा है। इसे समझने के लिए किसी रॉकेट विज्ञान की जरूरत नहीं है।

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भाषाई संस्कृति को सत्ताएं वैचारिक राज्य उपकरण की तरह इस्तेमाल करती हैं। इसे लुई अल्थुसर ज्यादा साफ शब्दों में कहते हैं कि, राज्य केवल दमनकारी ताकतों (जैसे पुलिस, सेना) के माध्यम से शासन नहीं करता, बल्कि वैचारिक संस्थाओं (जैसे शिक्षा, धर्म, मीडिया) के जरिये भी वर्चस्व स्थापित करता है।

इसलिए त्रिभाषा नीति वैचारिक राज्य उपकरणका हिस्सा है, जिससे केंद्र सरकार एक राष्ट्रीय पहचान गढ़ने की कोशिश कर रही है, जो हिंदीहिंदूसंस्कृति से जुड़ी हुई है।

सबसे महत्वपूर्ण बात है भाषा के बाज़ार की। मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में अंग्रेज़ी और हिंदी का बढ़ावा बाज़ार के हिसाब से तय किया जाता है। कॉरपोरेट सेक्टर में अंग्रेज़ी का प्रभुत्व है, जिससे वह अभिजात्य वर्ग के लिए मौके मुहैया कराती है, जबकि हिंदी को राष्ट्रीय बाजार के विस्तार के लिए इस्तेमाल किया जाता है। त्रिभाषा नीति के बहाने श्रमिक वर्ग को हिंदी पट्टीके उपभोक्ता बाजार तक सीमित किया जा रहा है। इसे समझने में हिंदी का बौद्धिक वर्ग नाकाम है और वह एक भाषा प्रेम की भावुकता में बड़ी और राजनीतिक लड़ाई में अपनी भूमिका को कमजोर कर रहा है।

Three Language Formula India controversyसाफ है कि त्रिभाषा फ़ॉर्मूले पर दोबारा विचार होना चाहिए, क्योंकि भाषा सीखने की प्रक्रिया जितना समृद्ध करती है, उतनी ही जटिल भी होती है। सेकेंड लैंग्वेज को गहराई से समझना ही एक बड़ी चुनौती है, तीसरी भाषा का अनिवार्य बोझ बच्चों की संज्ञानात्मक ऊर्जा को विभाजित कर देगा।

इसका एक व्यावहारिक हल यह है कि हम अंग्रेजी को संपर्क भाषा के रूप में विकसित करें। मैं जानता हूं हिंदी भाषा प्रेमी इस विचार से ही भड़क उठेंगे, लेकिन इस पर गंभीरता से और बिना भावुक हुए बात करना जरूरी है।

अंग्रेज़ी को भारत की संपर्क भाषा बनाने का तर्क ऐतिहासिक रूप से भी मज़बूत है। 19वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय ने भी इसे ही एक व्यावहारिक समाधान माना था। बाद में भीम राव अंबेडकर और पेरियार आदि ने हिंदी की अनिवार्यता का विरोध किया और अंग्रेज़ी को समानता और अवसर की भाषा बताया।

मुश्किल यह है कि हिंदी भाषी राजनीति एक संकीर्णता में फंसी हुई है। यह संकीर्णता सिर्फ भाषाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आधिपत्य से भी जुड़ी है। साथ ही इसमें धर्म का छौंक भी लगाया जाता रहा है। इस तरह हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जिद भी कहीं न कहीं एक लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज्महै, जो अन्य भारतीय भाषाओं के विकास को सीमित करता है।

दूसरे, अंग्रेज़ी के पक्ष में यह तर्क भी दिया जा सकता है कि आधुनिक ज्ञानविज्ञान और टेक्नोलॉजी की मुख्य धारा इसी भाषा में विकसित हो रही है। हिंदी अभी भी इसमें पिछड़ी हुई है, जिसका कारण हिंदी समाज की रूढ़िवादिता और वैज्ञानिक सोच की कमी भी है।

इसलिए व्यावहारिक दृष्टिकोण से हमें हिंदी को अनावश्यक राष्ट्रभाषा विवाद से बाहर रखकर अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार करना चाहिए और क्षेत्रीय भाषाओं को स्वतंत्र रूप से विकसित होने देना चाहिए। यही समाधान तर्कसंगत और ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित है।

कुछ लोग इस विचार से असहमत हो सकते हैं और वे कह सकते हैं कि छोटे बच्चे तीन भाषाएं आराम से सीख सकते हैं। इसके लिए कई निजी उदाहरण भी मिल जाएंगे और आप अपने आसपास देखेंगे तो तीन भाषाओं को पढ़ने और जानने वाले कई साथी दिखेंगे। लेकिन यह महज व्यक्तिगत अनुभव और चंद उदाहरण ही होंगे। यह मान लेना कि सभी बच्चे समान रूप से तीन भाषाएं आराम से सीख सकते हैं, पेडागॉजी की एक सरलीकृत व्याख्या है।

शोध बताते हैं कि बहुभाषी वातावरण में पलने वाले बच्चों के लिए भाषाअधिग्रहण की प्रक्रिया आसान हो सकती है, लेकिन जब औपचारिक शिक्षा में तीन अलगअलग भाषाओं को एक साथ लाद दिया जाता है, तो यह संज्ञानात्मक बोझ बढ़ा जाता है, खासकर उन बच्चों के लिए, जिनकी पृष्ठभूमि संसाधनसंपन्न नहीं है। तो इस तरह इस त्रिभाषा की मार सबसे ज्यादा आर्थिक रूप से कमजोर तबके पर ही पड़ेगी।

इसके अलावा, अतिरिक्त भाषा में महारत की व्यक्तिगत मेधा को एक सामान्य नियम मान लेना तर्कशास्त्र के सामान्य सिद्धांत की अवहेलना है। शहरी और ग्रामीण, समृद्ध और वंचित वर्गों के बच्चों के भाषाअधिग्रहण में खासा अंतर होता है। इसीलिए, त्रिभाषा नीति पर पुनर्विचार करना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि सभी बच्चों को समान अवसर मिलें, न कि सिर्फ उन लोगों को, जिनकी भाषा सीखने की परिस्थितियां अनुकूल रहीं हैं।

यह भी ध्यान देना चाहिए कि भाषा का उद्देश्य केवल सीखना नहीं, बल्कि ज्ञान प्राप्त करना और उसे संप्रेषित करना भी है। अगर शिक्षा प्रणाली बच्चों को केवल भाषाएं सीखने में उलझा देती है, तो उनका ध्यान गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र और अन्य व्यावहारिक विषयों पर कम हो सकता है। इसलिए, किसी भी नीति को निजी अनुभवों और भावुकता के बजाय व्यापक शैक्षिक शोध और सामाजिक यथार्थ के आधार पर तय किया जाना चाहिए।

हालांकि, कुछ वैज्ञानिक आकलन बताते हैं कि बच्चे कई भाषाएं एक साथ सीख सकते हैं, लेकिन इसकी व्यावहारिकता और ऐतिहासिक संदर्भ को समझना ज़रूरी है। यह सही है कि छोटे बच्चे कई भाषाएं सीख सकते हैं। नोम चॉम्स्की और स्टीफन क्रैशेन जैसे भाषाविज्ञानियों ने बताया है कि भाषाअधिग्रहण के लिए क्रिटिकल पीरियड हाइपोथेसिस (Critical Period Hypothesis) महत्वपूर्ण होती है, जिसके तहत बचपन में भाषाएं जल्दी सीखी जा सकती हैं। लेकिन यह सिद्धांत मुख्यतः प्राकृतिक भाषाअधिग्रहण (native acquisition) पर लागू होता है, न कि जबरन लादी गई शिक्षणनीति पर।

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1970 के दशक में त्रिभाषा फ़ॉर्मूला इस विचार से ही उपजा था कि भारत में भाषाई समावेशन बढ़ाया जाए, लेकिन इसका क्रियान्वयन राजनीतिक प्रभावों के कारण असमान रहा। उत्तर भारत में संस्कृत और उर्दू को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया गया, जबकि दक्षिण भारत में हिंदी लागू की गई। यह खुद इस नीति की विफलता को दिखाता है, क्योंकि भाषा विवाद मिटाने की बजाय यह और अधिक विवादास्पद हो गया।

इसका एक महत्वपूर्ण विश्लेषण बी.आर. अंबेडकर ने किया था। वे मानते थे कि भाषा विवाद का समाधान केवल व्यावहारिक और समान अवसर देने वाली भाषा में है, न कि किसी क्षेत्रीय या ऐतिहासिक भाषा के ज़बरदस्ती थोपने में। उन्होंने 1950 में संविधान सभा में कहा था कि अंग्रेज़ी एक तटस्थ संपर्क भाषा हो सकती है, जो समान अवसर देती है।

दूसरी बात, एंटोनियो ग्राम्शी और पीयर बोर्दियू जैसे विचारक साफ करते हैं कि ने बताया है कि भाषाएं सिर्फ संचार के माध्यम नहीं होतीं, बल्कि वे सांस्कृतिक आधिपत्य (Cultural Hegemony) का भी उपकरण होती हैं। जब उत्तर भारत में संस्कृत को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया गया, तो यह एक ब्राह्मणवादी आधिपत्य को बनाए रखने की कोशिश थी, न कि भाषाई विविधता को बढ़ाने की कोशिश। इसी तरह, दक्षिण भारत में हिंदी लागू करना राजनीतिकप्रशासनिक शक्ति संतुलन को प्रभावित करने के लिए किया गया, न कि आपसी समझ को बढ़ाने के लिए।

अब सवाल है कि क्या त्रिभाषा फ़ॉर्मूला सफल हो सकता था?

अगर इसे ठीक से लागू किया जाता, तो यह एक अच्छी नीति हो सकती थी। लेकिन व्यवहार में यह इसलिए विफल हुआ क्योंकि—

भाषाएं सामाजिक सत्तासंबंधों से जुड़ी होती हैं। उत्तर भारत में संस्कृत और उर्दू को बढ़ावा देना इस बात का साफ सबूत है कि भाषानीति को भी सांस्कृतिक और राजनीतिक नियंत्रण के जरिये प्रभावित किया गया है।

दूसरी बात मकसद और जरूरत की है। शिक्षाविद् पाउलो फ्रेरे का कहना था कि शिक्षा का मकसद महज भाषा सिखाना नहीं, बल्कि चेतना निर्माण करना है। जब शिक्षा व्यवस्था बच्चों को भाषाओं में उलझा देती है, तो वे अन्य महत्वपूर्ण विषयों, जैसे गणित, विज्ञान और आलोचनात्मक सोच पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते हैं।

तीसरे, वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा के लिए व्यावहारिक भाषा ज़रूरी है। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि आधुनिक दुनिया में आर्थिकराजनीतिक शक्ति उन्हीं के पास होती है, जो प्रमुख वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान रखते हैं। आज के दौर में वह भाषा अंग्रेज़ी है, न कि हिंदी या संस्कृत।

साथ ही, इस बात को समझना जरूरी है कि त्रिभाषा फार्मूले को समाज की व्यापक वास्तविकताओं और सभी वर्गों की जरूरतों के आधार पर परखा जाना चाहिए। भारत का सामाजिकसांस्कृतिक संदर्भ यूरोप या अन्य देशों से अलग है। यहां भाषाई बहस सत्ता, वर्ग और मौकों से गहराई से जुड़ी हुई है। इसलिए, नीतिनिर्माण में ऐतिहासिक और सामाजिक वास्तविकताओं को भी ध्यान में रखना ज़रूरी है, न कि चंद उदाहरण और प्रयोगों को।

इस बहस को बहुत ज्यादा न उलझाया जाए तो सहज रास्ता तो यही है कि अंग्रेजी को भारत की संपर्क भाषा बनाया जाए और बाकी सभी क्षेत्रीय भाषाओं को अपने अपने स्तर पर फलने फूलने के समान अवसर हों। हालांकि, इस राह की सबसे बड़ी बाधा हिंदी भाषी ही हैं जो हिंदी के श्रेष्ठता बोध और संख्यात्मक अहंकार से बाहर नहीं निकल पाते हैं और हिंदी को राष्ट्रभाषा से कम किसी और पायदान पर देखना ही नहीं चाहते हैं।

साफ है कि त्रिभाषा फ़ॉर्मूला न सिर्फ उत्तर भारत बल्कि पूरे देश में विफल रहा है, क्योंकि इसे लागू करने का तरीका राजनीति से प्रेरित था, न कि शैक्षिक तर्कों से। इसके बावजूद अगर त्रिभाषा फार्मूले पर टिके ही रहना है, तो इसमें कुछ जरूरी बदलाव करना होंगे। अव्वल तो, उत्तर भारत में दक्षिण भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, ताकि भाषाई संतुलन बना रहे। साथ ही तीसरी भाषा का चुनाव राज्यों की स्वतंत्रता पर छोड़ा जाए, केंद्र इसे अनिवार्य न करे। तीसरे, भाषा को सत्ता और संस्कृति का उपकरण न बनाया जाए, बल्कि इसे सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से लागू किया जाए और संस्कृत को एकमात्र विकल्प के रूप में न बढ़ाया जाए, बल्कि आधुनिक भाषाओं (जैसे तमिल, बांग्ला, मराठी, उर्दू) को भी प्रोत्साहित किया जाए।

और अंत में

मौजूदा हकीकतों की रोशनी में हमें भाषा की बहस से आगे बढ़कर यह सोचना होगा कि भाषा शिक्षा का उद्देश्य क्या है? अगर उद्देश्य सामाजिक समावेशन और वैज्ञानिक उन्नति है, तो अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार करना व्यावहारिक और तर्कसंगत है, जबकि क्षेत्रीय भाषाओं को उनकी सांस्कृतिक जड़ों के अनुसार विकसित होने देना चाहिए।

अगर यह बहस सिर्फ इस आधार पर चलेगी कि उत्तर भारतीय दूसरी भाषा क्यों नहीं सीखते?” या दक्षिण भारत हिंदी क्यों नहीं चाहता?” तो हम फिर से भाषा विवाद में उलझे रहेंगे और असली मुद्दा जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा है, पीछे छूट जाएगा।