इतिहास, राजनीति और समाज: 20 किताबें जो बदल देंगी आपका नजरिया
इतिहास को समझने के लिए महज राजा-महाराजाओं और युद्धों की कहानी नहीं, बल्कि जनता, श्रमिकों, किसानों, स्त्रियों और हाशिए के समुदायों के संघर्षों को जानना जरूरी है। मुश्किल यह है कि दुनिया भर में ज्यादातर इतिहास की किताबें हमें युद्धों और राजनीति के केंद्र में रहे लोगों के बारे में ही बताती हैं और वे सत्ता के नजरिये से ही लिखी गई होती हैं। हालांकि इसके बरअक्स कुछ किताबें ऐसी भी हैं, जो जनता की नजर से इतिहास को देखती हैं, ये किताबें समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था को पारंपरिक दृष्टिकोण से अलग, जन आंदोलनों, वर्ग संघर्ष, मजदूरों और उपनिवेशवाद के संदर्भ में देखने की कोशिश करती हैं। इन पुस्तकों में सत्ता, धन और शक्ति संरचनाओं पर सवाल उठाए गए हैं और नवउदारवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद व फासीवाद की आलोचना की गई है। इन्हें पढ़ना अपने समय को एक नई दृष्टि से देखना है। यह कहना भी गैरजरूरी नहीं है कि अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप के लिए इन किताबों से गुजरना एक जरूरी यात्रा है। संविधान लाइव पर हम अलग अलग वक्त में इन किताबों के बारे में बात करते रहे हैं। प्रस्तुत है ऐसी 20 किताबों के बारे में एक साथ कुछ जानकारियां। उम्मीद है यह सूची राजनीतिक, आर्थिक, और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समाज की समझ को व्यापक बनाने में सहायक होगी और जो साथी संघर्षों के जरिये प्रगतिशील, जनवादी समाज की स्थापना के महत्वपूर्ण कार्य में लगे हुए हैं, उनकी वैचारिक उलझनों और सवालों के जवाब खोजने में मदद करेंगी।
1. क्रिस हरमन – “A People’s History of the World”
2. एरिक हॉब्सबॉम – “The Age of Revolution: 1789–1848”
3. एरिक हॉब्सबॉम – “The Age of Capital: 1848–1875”
4. एरिक हॉब्सबॉम – “The Age of Empire: 1875–1914”
5. एरिक हॉब्सबॉम – “The Age of Extremes: 1914–1991”
6. हावर्ड ज़िन – “A People’s History of the United States”
7. डेविड हार्वे – “A Brief History of Neoliberalism”
8. सिल्विया फेडेरिसी – “Caliban and the Witch”
9. फ्रेडरिक एंगेल्स – “The Origin of the Family, Private Property and the State”
10. रणजीत गुहा – “Elementary Aspects of Peasant Insurgency in Colonial India”
11. माइकल पैरेंटी – “Blackshirts and Reds”
12. एलेन वुड – “The Origin of Capitalism”
13. अर्नेस्टो लाकलाउ और चंतल माउफ – “Hegemony and Socialist Strategy”
14. रोजा लक्ज़ेमबर्ग – “The Accumulation of Capital”
15. वाल्टर रॉडनी – “How Europe Underdeveloped Africa”
16. जॉन रीड – “Ten Days That Shook the World”
17. पेरी एंडरसन – “Passages from Antiquity to Feudalism”
18. पेरी एंडरसन – “Lineages of the Absolutist State”
19. इमैनुएल वालेर्स्ताइन – “The Modern World-System”
20. एंटोनियो ग्राम्शी – “Selections from the Prison Notebooks”
1. क्रिस हरमन – “A People’s History of the World”
क्रिस हरमन (1942–2009) एक मार्क्सवादी इतिहासकार, पत्रकार और कार्यकर्ता थे। वे ब्रिटिश सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी (SWP) के प्रमुख विचारकों में से एक थे और लंबे समय तक इसकी पत्रिका Socialist Worker के संपादक रहे। उन्होंने समाजवाद, वर्ग संघर्ष और पूंजीवाद के विकास पर कई महत्वपूर्ण लेख और किताबें लिखीं। उनका काम मुख्य रूप से इस विचार पर केंद्रित था कि इतिहास को सिर्फ राजा–महाराजाओं, युद्धों और शासकों के नजरिए से नहीं, बल्कि आम जनता, मजदूरों, किसानों और हाशिए के समुदायों के संघर्षों के माध्यम से समझा जाना चाहिए।
हरमन ने पूरी दुनिया में समाजवादी आंदोलनों और क्रांतियों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने कई देशों की यात्रा की और वामपंथी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर सामाजिक परिवर्तन की रणनीतियों पर काम किया। उनकी लेखनी और गतिविधियां मुख्य रूप से श्रमिक वर्ग और शोषित तबकों के अधिकारों की वकालत करने के लिए समर्पित थीं।
क्रिस हरमन ने A People’s History of the World को एक व्यापक दृष्टिकोण से लिखा, जिसमें इतिहास को मजदूर वर्ग, किसानों और सामाजिक आंदोलनों के संघर्षों के नजरिए से प्रस्तुत किया गया। वे इस धारणा को चुनौती देना चाहते थे कि इतिहास केवल राजा–रानी, युद्ध और शासकों की जीत–हार का विषय है।
इस किताब को लिखने के पीछे उनकी मुख्य वजहों में पहली थी, इतिहास का वैकल्पिक दृष्टिकोण। इतिहास की पारंपरिक व्याख्याएँ सत्ता और प्रभुत्व की कहानियों तक सीमित रहती हैं। हरमन ने इसे आम लोगों के नजरिए से देखने की कोशिश की। दूसरे, वे वर्ग संघर्ष का महत्व रेखांकित करना चाहते थे। वे यह दिखाना चाहते थे कि इतिहास केवल शासकों के फैसलों का परिणाम नहीं, बल्कि मजदूरों, किसानों और दासों के संघर्षों और विद्रोहों का भी परिणाम है। तीसरे, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की आलोचना। उन्होंने दिखाया कि कैसे पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का विकास दुनिया के अधिकांश लोगों के लिए शोषण और संघर्ष लेकर आया। और चौथी और महत्वपूर्ण वजह थी, मार्क्सवादी दृष्टिकोण। उन्होंने इतिहास को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism) के आधार पर देखा, जिसमें सामाजिक बदलाव को आर्थिक संरचनाओं और वर्ग संघर्ष से जोड़कर समझाया गया।
इस किताब में मानव इतिहास को छह हिस्सों में बांटा गया है।
– आदिम साम्यवादी समाज: मानव सभ्यता की शुरुआत और शिकारी–संग्रहकर्ता समाजों का जीवन।
– प्राचीन सभ्यताएँ और दास प्रथा: मिस्र, मेसोपोटामिया, ग्रीस और रोम जैसे साम्राज्यों का उदय और इनकी सामाजिक संरचना।
– मध्यकाल और सामंती समाज: यूरोप और एशिया में सामंतवाद का विकास, किसानों और श्रमिकों के संघर्ष।
– पूंजीवाद का उदय: औद्योगिक क्रांति, उपनिवेशवाद और आधुनिक राष्ट्र–राज्यों का निर्माण।
– क्रांतियाँ और समाजवादी संघर्ष: फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति और समाजवादी आंदोलनों का प्रभाव।
– आधुनिक युग और नवउदारवाद: 20वीं सदी के युद्ध, फासीवाद, साम्राज्यवाद और नवउदारवाद की चुनौती।
“A People’s History of the World” को समाजवादी और जनपक्षीय इतिहास लेखन की एक महत्वपूर्ण कृति माना जाता है। यह कई अन्य इतिहासकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों को प्रेरित करती है। इस पुस्तक ने इतिहास के अध्ययन में एक नया दृष्टिकोण जोड़ा, जिसमें आम जनता के संघर्षों को केंद्र में रखा गया। यह किताब उन लोगों के लिए बेहद उपयोगी है, जो इतिहास को सत्ता की बजाय जनता की निगाह से देखना चाहते हैं।
इस किताब में इतिहास को पारंपरिक रूप से राजा–रानी या युद्धों के आधार पर देखने की बजाय आम जनता, किसानों, मजदूरों और आंदोलनों के नजरिए से प्रस्तुत किया गया है। यह सभ्यता के शुरुआती दौर से लेकर आधुनिक पूंजीवादी समाज तक के विकास को बताती है और दिखाती है कि कैसे सत्ता हमेशा जनता के संघर्षों के खिलाफ रही है। हरमन बताते हैं कि किस तरह विभिन्न युगों में सामाजिक और आर्थिक बदलाव आए और कैसे वर्ग संघर्ष इतिहास को आगे बढ़ाने का मुख्य कारक रहा।
2. एरिक हॉब्सबॉम – “The Age of Revolution: 1789–1848”
एरिक हॉब्सबॉम (1917–2012) 20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली मार्क्सवादी इतिहासकारों में से एक थे। वे ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे और श्रमिक वर्ग के इतिहास, औद्योगिक क्रांति, और पूंजीवाद के विकास पर गहन शोध किया। हॉब्सबॉम का जन्म मिस्र में हुआ था, लेकिन वे जर्मनी और फिर इंग्लैंड चले गए, जहां उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से इतिहास की पढ़ाई की।
उनका दृष्टिकोण मुख्य रूप से ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical Materialism) पर आधारित था, जिसमें इतिहास को सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के संघर्ष के रूप में देखा जाता है। वे यह मानते थे कि इतिहास केवल शासकों और राजाओं की गाथा नहीं है, बल्कि आम जनता, मजदूरों और किसानों के संघर्षों का परिणाम है।
हॉब्सबॉम की The Age of Revolution: 1789–1848 उनकी प्रसिद्ध “The Age” त्रयी (trilogy) की पहली किताब है। यह किताब मुख्य रूप से दो महान क्रांतियों— फ्रांसीसी क्रांति (1789) और औद्योगिक क्रांति —पर केंद्रित है और यह बताती है कि इन क्रांतियों ने आधुनिक दुनिया को कैसे बदल दिया।
इस किताब को लिखने के पीछे उनकी मुख्य वजहें थीं: क्रांति और समाज में बदलाव का संबंध – वे यह दिखाना चाहते थे कि 1789 की फ्रांसीसी क्रांति और औद्योगिक क्रांति ने आधुनिक समाज की नींव कैसे रखी। पूंजीवाद और आधुनिक राष्ट्र–राज्यों का उदय – उन्होंने यह समझाने की कोशिश की कि कैसे इन क्रांतियों ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय पहचान को जन्म दिया। यूरोप से वैश्विक प्रभाव– यह किताब यूरोपीय घटनाओं को सिर्फ स्थानीय घटनाएँ नहीं मानती, बल्कि दिखाती है कि कैसे इन क्रांतियों का असर पूरी दुनिया पर पड़ा। मार्क्सवादी दृष्टिकोण से इतिहास की व्याख्या– उन्होंने यह बताया कि इन क्रांतियों ने वर्ग संघर्ष को किस तरह प्रभावित किया और कैसे पूंजीपति वर्ग (Bourgeoisie) ने सत्ता हासिल की।
“The Age of Revolution” को इतिहास लेखन में एक क्रांतिकारी कृति माना जाता है। इसने ऐतिहासिक घटनाओं को पारंपरिक नजरिए से अलग एक नए दृष्टिकोण से देखने की प्रेरणा दी। हॉब्सबॉम ने इतिहास को केवल घटनाओं का क्रम नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना और वर्ग संघर्ष का परिणाम बताया। इस किताब को उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है, जो आधुनिक दुनिया के निर्माण में क्रांतियों की भूमिका को समझना चाहते हैं।
3. एरिक हॉब्सबॉम – “The Age of Capital: 1848–1875
एरिक हॉब्सबाम ने इस पुस्तक में पूंजीवाद के उदय और उसके वैश्विक विस्तार की प्रक्रिया को समझाया गया है। यह दिखाती है कि 1848 की क्रांतियों के बाद दुनिया में पूंजीवाद कैसे एक प्रमुख आर्थिक और सामाजिक शक्ति बन गया। इस दौर में उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और औद्योगीकरण तेज हुआ, जिससे आर्थिक असमानता और सामाजिक संघर्षों में वृद्धि हुई।
4. एरिक हॉब्सबॉम – “The Age of Empire: 1875–1914”
एरिक ने इस पुस्तक में 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी की शुरुआत में साम्राज्यवाद के प्रभावों को गहराई से समझाया गया है। यह दिखाती है कि कैसे यूरोपीय शक्तियों ने अफ्रीका, एशिया और अन्य क्षेत्रों में अपने साम्राज्य स्थापित किए और उपनिवेशों का आर्थिक शोषण किया। यह किताब वैश्विक पूंजीवाद और साम्राज्यवादी नीतियों के सामाजिक प्रभावों की आलोचना करती है।
5. एरिक हॉब्सबॉम – “The Age of Extremes: 1914–1991”
हॉब्सबाम ने यह किताब 20वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं—दो विश्व युद्धों, शीत युद्ध, समाजवादी आंदोलनों और नवउदारवाद के उदय—का विश्लेषण करती है। इसमें बताया गया है कि कैसे यह युग असमानता, संघर्ष और क्रांतियों से भरा हुआ था। यह किताब फासीवाद और नवउदारवाद की आलोचना करती है और उनके खतरों को उजागर करती है।
6. हावर्ड ज़िन – “A People’s History of the United States”
हावर्ड ज़िन (1922–2010) अमेरिका के सबसे प्रसिद्ध इतिहासकार, राजनीतिक कार्यकर्ता और समाजशास्त्री थे। वे एक ऐसे इतिहासकार थे, जिन्होंने पारंपरिक इतिहास लेखन को चुनौती दी और इतिहास को आम जनता, श्रमिकों, अश्वेतों, महिलाओं, और हाशिए के समुदायों के नजरिए से देखने की कोशिश की। ज़िन का जन्म न्यूयॉर्क में एक गरीब यहूदी परिवार में हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने अमेरिकी वायु सेना में सेवा दी, लेकिन बाद में उन्होंने युद्ध–विरोधी दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से इतिहास में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और नागरिक अधिकार आंदोलनों और वियतनाम युद्ध–विरोधी आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई। उनका मानना था कि इतिहास को केवल शासकों और सत्ता के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि आम लोगों की कहानियों के आधार पर लिखा जाना चाहिए।
हावर्ड ज़िन ने इस किताब को अमेरिकी इतिहास को पारंपरिक शासक–वर्ग की कथा से अलग एक जन–संस्करण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए लिखा। ज़िन ने महसूस किया कि अमेरिकी इतिहास की किताबों में केवल सफेद, संपन्न पुरुषों की कहानियाँ हैं, जबकि असली इतिहास उन करोड़ों मेहनतकश लोगों, महिलाओं, अफ्रीकी–अमेरिकियों, मूलनिवासियों, और श्रमिकों का है जिन्होंने अमेरिका को बनाया।
ज़िन ने इस किताब को अमेरिकी इतिहास को आदिवासी समुदायों, अफ्रीकी गुलामों, श्रमिकों और महिलाओं की नजर से प्रस्तुत किया। उन्होंने दिखाया कि अमेरिकी सरकार ने किस तरह से युद्धों, सैन्य हस्तक्षेपों और पूंजीवादी नीतियों से आम लोगों का शोषण किया। किताब उन आंदोलनों पर ध्यान देती है जिन्होंने अमेरिका के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे को बदला, जैसे श्रमिक आंदोलन, नागरिक अधिकार आंदोलन, महिलाओं की मुक्ति और युद्ध–विरोधी आंदोलन। ज़िन का मानना था कि इतिहास को सिर्फ “बड़े पुरुषों” (Great Men) के नजरिए से नहीं, बल्कि साधारण लोगों के संघर्षों के रूप में देखा जाना चाहिए।
1. कोलंबस से पहले अमेरिका – किताब की शुरुआत यह दिखाने से होती है कि यूरोपीय आगमन से पहले अमेरिका में स्वदेशी सभ्यताएँ कैसी थीं और किस तरह से यूरोपीय उपनिवेशवाद ने इनका विनाश किया।
2. गुलामी और अफ्रीकी–अमेरिकी संघर्ष – अमेरिका में गुलामी की शुरुआत, दासों के विद्रोह और अमेरिकी गृहयुद्ध के प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है।
3. श्रमिक आंदोलन और पूंजीवाद का उदय – औद्योगिक क्रांति के दौरान मजदूर वर्ग का शोषण और ट्रेड यूनियन आंदोलनों की भूमिका।
4. महिलाओं और श्रमिकों का संघर्ष – अमेरिकी इतिहास में महिलाओं के योगदान और उनके अधिकारों की लड़ाई।
5. युद्ध और अमेरिकी साम्राज्यवाद – अमेरिका के विभिन्न युद्धों (जैसे वियतनाम युद्ध) की आलोचना और उनकी असली वजहों को उजागर करना।
6. नागरिक अधिकार आंदोलन – मार्टिन लूथर किंग जूनियर, मैल्कम एक्स और अन्य अश्वेत कार्यकर्ताओं के संघर्षों को प्रस्तुत करना।
7. आधुनिक अमेरिका में सत्ता और विरोध – 20वीं और 21वीं सदी में पूंजीवाद, युद्ध, और सामाजिक असमानताओं पर ध्यान केंद्रित करना।
“A People’s History of the United States” को अमेरिकी इतिहास लेखन में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाली किताब माना जाता है। यह पारंपरिक इतिहास–लेखन से अलग है, क्योंकि यह सत्ता–वर्ग के बजाय आम जनता के नजरिए को प्राथमिकता देती है। इस किताब को शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों के बीच बहुत लोकप्रियता मिली, लेकिन यह अमेरिकी सरकार और परंपरावादी इतिहासकारों के लिए असुविधाजनक भी रही। इसे अमेरिकी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में इतिहास पढ़ाने के तरीके को बदलने वाली किताबों में गिना जाता है।
हावर्ड ज़िन ने इस किताब के जरिए यह दिखाया कि इतिहास केवल विजेताओं की गाथा नहीं है, बल्कि उसमें उन लोगों की कहानियाँ भी शामिल होनी चाहिए जिन्होंने अन्याय और दमन के खिलाफ संघर्ष किया। “A People’s History of the United States” एक ऐसी किताब है जो सत्ता–वर्ग के बजाय जनता के नजरिए से इतिहास को देखने के लिए प्रेरित करती है। यह किताब अमेरिका के इतिहास को आम जनता के नजरिए से प्रस्तुत करती है। यह उपनिवेशवाद, दासता, मजदूर आंदोलनों, नागरिक अधिकार संघर्ष और सामाजिक असमानताओं पर विस्तृत चर्चा करती है। ज़िन यह दिखाते हैं कि अमेरिका की लोकतांत्रिक संरचना किस प्रकार शुरू से ही शोषण और दमन पर आधारित रही है।
7. डेविड हार्वे – “A Brief History of Neoliberalism”
डेविड हार्वे (जन्म 1935) एक ब्रिटिश भूगोलविद, समाजशास्त्री और मार्क्सवादी सिद्धांतकार हैं। वे विशेष रूप से शहरीकरण, पूंजीवाद और नवउदारवाद (Neoliberalism) के आलोचक हैं। हार्वे ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और बाद में अमेरिका में कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर स्थानिक असमानताओं (spatial inequalities) और आर्थिक भूगोल पर महत्वपूर्ण शोध किए हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध किताबों में “Social Justice and the City”, “The Limits to Capital”, और “A Companion to Marx’s Capital” शामिल हैं।
डेविड हार्वे ने इस किताब को लिखने के पीछे मुख्य रूप से नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रभाव को समझाने का उद्देश्य रखा। हार्वे बताते हैं कि 1970 के दशक के आर्थिक संकट के बाद अमेरिका और ब्रिटेन में नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ कैसे अपनाई गईं। सरकारों ने कैसे बाजार को नियंत्रित करने के बजाय कॉरपोरेट हितों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया। नवउदारवादी नीतियों ने कैसे सामाजिक सेवाओं (शिक्षा, स्वास्थ्य) को निजी हाथों में सौंप दिया और असमानताओं को बढ़ाया। नवउदारवादी मॉडल को विश्व बैंक, IMF और अन्य वैश्विक संस्थाओं द्वारा कैसे फैलाया गया।
यह किताब नवउदारवाद की आलोचना करने वाले अकादमिक और सामाजिक आंदोलनों में बहुत लोकप्रिय है। यह दिखाती है कि कैसे नवउदारवादी नीतियों ने गरीब और मध्यम वर्ग को नुकसान पहुँचाया जबकि अमीरों को और अधिक समृद्ध किया।
8. सिल्विया फेडेरिसी – “Caliban and the Witch”
सिल्विया फेडेरिसी (जन्म 1942) एक इतालवी–अमेरिकी मार्क्सवादी नारीवादी हैं। वे विशेष रूप से महिलाओं, श्रमिक आंदोलनों और पूँजीवाद के अध्ययन के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने घरेलू श्रम (domestic labor) और महिलाओं के शोषण पर गहराई से शोध किया है।
फेडेरिसी इस किताब में तर्क देती हैं कि पूँजीवाद का उदय और महिलाओं का शोषण एक दूसरे से जुड़ी हुई परिघटनाएं हैं। वे किताब में पूँजीवाद के शुरुआती दौर में महिलाओं पर किए गए अत्याचारों का वर्णन करती हैं। चुड़ैल–शिकार (Witch Hunts) और सत्ता का नियंत्रण को एक करते हुए वे यूरोप में बड़े पैमाने पर हुई चुड़ैल हत्याओं को पूँजीवादी संरचना के रूप में देखती हैं। साथ ही श्रम विभाजन और पितृसत्ता को देखते हुए वे कहती हैं कि पूँजीवादी समाज में श्रम को पुरुषों और महिलाओं के बीच असमान रूप से बाँटा गया। इसी क्रम में समाज में महिलाओं की भूमिका पर बात करते हुए वे बताती हैं कि कैसे पूँजीवाद ने महिलाओं के श्रम का अवमूल्यन किया और उन्हें घरेलू भूमिका तक सीमित कर दिया।
“Caliban and the Witch” को नारीवादी और मार्क्सवादी साहित्य में एक महत्वपूर्ण किताब माना जाता है। यह दिखाती है कि पूँजीवाद केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक नियंत्रण का भी उपकरण है।
9. फ्रेडरिक एंगेल्स – “The Origin of the Family, Private Property and the State”
फ्रेडरिक एंगेल्स (1820–1895) एक जर्मन दार्शनिक, समाजशास्त्री और कार्ल मार्क्स के सहयोगी थे। वे मार्क्सवाद के प्रमुख संस्थापकों में से एक थे और पूँजीवाद की आलोचना करने वाले समाजवादी सिद्धांतों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने “The Condition of the Working Class in England”, “Anti-Dühring”, और “Dialectics of Nature” जैसी महत्वपूर्ण किताबें लिखीं।
“The Origin of the Family, Private Property and the State” किताब मार्क्स की मृत्यु के बाद एंगेल्स द्वारा लिखी गई और इसमें उन्होंने यह समझाने की कोशिश की कि परिवार और पितृसत्ता का विकास कैसे हुआ। कैसे मातृसत्तात्मक समाज से पितृसत्तात्मक समाज की ओर बदलाव हुआ। निजी संपत्ति के उदय के बारे में वे लिखते हैं कि जब मनुष्य ने कृषि करना शुरू किया, तो निजी संपत्ति और वर्ग–व्यवस्था का जन्म हुआ। इसी तरह राज्य का उदय किस तरह से संपत्ति की रक्षा और शोषणकारी वर्ग की शक्ति बनाए रखने के लिए हुआ।
यह किताब समाजवादी आंदोलनों के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रंथ बन गई। यह दिखाती है कि राज्य और परिवार जैसी संस्थाएँ केवल जैविक या नैसर्गिक नहीं हैं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से विकसित हुई हैं।
10. रणजीत गुहा – “Elementary Aspects of Peasant Insurgency in Colonial India”
रणजीत गुहा (1923–2023) एक भारतीय इतिहासकार और उपनिवेशवाद के आलोचक थे। वे “Subaltern Studies” आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे, जो भारत में किसानों, श्रमिकों और हाशिए पर मौजूद लोगों के इतिहास को केंद्र में रखकर लिखा गया इतिहास है। गुहा का मानना था कि पारंपरिक इतिहास केवल शासकों का इतिहास बताता है, जबकि असली इतिहास आम लोगों का संघर्ष है।
“Elementary Aspects of Peasant Insurgency in Colonial India” में गुहा दिखाते हैं कि ब्रिटिश शासन में किसानों के विद्रोहों को केवल “अराजकता” के रूप में देखा गया था, लेकिन वे संगठित और राजनीतिक थे। इसलिए किसान विद्रोहों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। वहीं किसानों की विद्रोही चेतना की पड़ताल करते हुए यह किताब उन तरीकों की पड़ताल करती है जिनसे भारतीय किसान ब्रिटिश शासन और जमींदारों के खिलाफ विद्रोह करते थे। औपनिवेशिक सत्ता के प्रतिरोध पर लिखते हुए गुहा स्पष्ट करते हैं कि भारतीय किसानों ने अपनी सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान बनाए रखने के लिए कैसे संघर्ष किया।
“Elementary Aspects of Peasant Insurgency in Colonial India” औपनिवेशिक भारत के इतिहास को समझने के लिए एक क्रांतिकारी किताब मानी जाती है। यह दिखाती है कि भारत की स्वतंत्रता केवल ऊपरी वर्गों की देन नहीं थी, बल्कि किसानों और आम जनता ने भी इसमें बड़ा योगदान दिया।
यह किताब औपनिवेशिक भारत में किसानों के विद्रोहों का ऐतिहासिक अध्ययन प्रस्तुत करती है। गुहा दिखाते हैं कि किस तरह किसान विद्रोह सिर्फ असंतोष की प्रतिक्रियाएं नहीं, बल्कि संगठित प्रतिरोध की अभिव्यक्तियां थीं। यह पुस्तक सबाल्टर्न इतिहास लेखन के महत्वपूर्ण दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है।
11. माइकल पैरेंटी – “Blackshirts and Reds”
माइकल पैरेंटी (जन्म 1933) एक अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक, इतिहासकार और मार्क्सवादी विचारक हैं। वे पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और अमेरिकी राजनीति की आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं। पैरेंटी का काम मुख्य रूप से इस बात पर केंद्रित है कि कैसे सत्ता, मीडिया और अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करके पूंजीपति वर्ग जनता को दबाता है।
उनकी अन्य प्रमुख रचनाओं में “Democracy for the Few” (1974), “Against Empire” (1995) और “The Assassination of Julius Caesar: A People’s History of Ancient Rome” (2003) शामिल हैं।
यह किताब फासीवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच के संबंधों का विश्लेषण करती है। पैरेंटी दिखाते हैं कि फासीवादी आंदोलनों को अक्सर पूंजीपति वर्ग का समर्थन मिलता है, क्योंकि वे वामपंथी आंदोलनों को कुचलते हैं। वे यह तर्क देते हैं कि पश्चिमी प्रचार ने समाजवादी परियोजनाओं की केवल नकारात्मक छवि पेश की, जबकि उनकी कुछ उपलब्धियों को नजरअंदाज किया गया। वे दिखाते हैं कि कैसे अमेरिका और पश्चिमी देशों ने समाजवादी देशों को कमजोर करने के लिए आर्थिक प्रतिबंध और सैन्य हस्तक्षेप किए। पैरेंटी इस बात पर जोर देते हैं कि पूंजीवाद में भी जनता का शोषण होता है, और पूंजीवादी लोकतंत्र वास्तव में कुलीनों के हितों की रक्षा करता है।
“Blackshirts and Reds” एक महत्वपूर्ण किताब है, जो फासीवाद और साम्यवाद की तुलना करते समय मुख्यधारा की पश्चिमी मान्यताओं को चुनौती देती है। पैरेंटी दिखाते हैं कि फासीवाद पूंजीवाद की रक्षा के लिए काम करता है, जबकि समाजवाद को असफल दिखाने के लिए पूंजीवादी शक्तियाँ पूरी ताकत लगाती हैं। माइकल पैरेंटी ने “Blackshirts and Reds” में दिखाया कि फासीवाद पूंजीवाद की रक्षा करता है और समाजवाद के खिलाफ झूठा प्रचार किया जाता है। यह पुस्तक फासीवाद और समाजवाद के बीच ऐतिहासिक संघर्षों को प्रस्तुत करती है। कैसे पूंजीवादी शक्तियां फासीवाद को समर्थन देती रही हैं और समाजवादी आंदोलनों को दबाने का प्रयास करती रही हैं। यह पुस्तक समाजवादी राजनीति की संभावनाओं और नवउदारवाद की आलोचना करती है।
12. एलेन वुड – “The Origin of Capitalism”
एलेन मीकसिंस वुड (1942–2016) एक कनाडाई–ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकार और राजनीतिक सिद्धांतकार थीं। वे ऐतिहासिक भौतिकवाद और पूंजीवाद के उद्भव पर अपने विश्लेषण के लिए जानी जाती हैं। उनका मुख्य तर्क यह था कि पूंजीवाद स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं हुआ, बल्कि यह विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों का परिणाम था।
उनकी अन्य प्रमुख किताबों में “Democracy Against Capitalism: Renewing Historical Materialism” (1995), “Empire of Capital” (2003) और “Liberty and Property: A Social History of Western Political Thought” (2012) शामिल हैं।
एलेन वुड ने यह किताब पूंजीवाद के विकास को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समझाने के लिए लिखी। वुड यह तर्क देती हैं कि पूंजीवाद एक स्वाभाविक आर्थिक विकास नहीं था, बल्कि यह ब्रिटेन में विशिष्ट परिस्थितियों से जन्मा। वे कहती हैं कि व्यापार और बाजार बहुत पुराने हैं, लेकिन पूंजीवाद केवल तभी विकसित हुआ जब उत्पादन के तरीके पूरी तरह से बदले। वे दिखाती हैं कि कैसे ब्रिटेन में जमींदारों और किसानों के बीच संबंध बदले, जिससे बाजार–आधारित कृषि और श्रम संबंध उभरे। वुड दिखाती हैं कि पूंजीवाद को मजबूती देने में राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
“The Origin of Capitalism” यह दिखाती है कि पूंजीवाद एक अपरिहार्य आर्थिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से निर्मित हुआ है। वुड की यह किताब ऐतिहासिक भौतिकवाद की दृष्टि से पूंजीवाद के विकास की गहरी समझ देती है। एलेन वुड ने “The Origin of Capitalism” में यह सिद्ध किया कि पूंजीवाद का विकास ऐतिहासिक परिस्थितियों का परिणाम था, न कि स्वाभाविक प्रक्रिया। यह किताब बताती है कि पूंजीवाद कोई स्वाभाविक आर्थिक प्रणाली नहीं, बल्कि ऐतिहासिक परिस्थितियों और विशेष राजनीतिक–सामाजिक बदलावों का परिणाम है। वुड यह दिखाती हैं कि कैसे पूंजीवाद के उदय ने श्रम और उत्पादन के पारंपरिक रूपों को बदल दिया।
13. अर्नेस्टो लाकलाउ और चंतल माउफ – “Hegemony and Socialist Strategy”
अर्नेस्टो लाकलाउ (1935–2014) एक अर्जेंटीनी राजनीतिक सिद्धांतकार थे, जो पोस्ट–मार्क्सवाद और हेजेमनी (hegemony) सिद्धांत पर अपने काम के लिए प्रसिद्ध हैं। चंतल माउफ (जन्म 1943) एक बेल्जियन राजनीतिक दार्शनिक हैं, जिन्होंने वामपंथी राजनीति में बहुलतावाद और लोकतंत्र की नई व्याख्या दी है।
लाकलाउ और माउफ के अन्य प्रमुख कामों में “On Populist Reason” (2005) – अर्नेस्टो लाकलाउ, “The Democratic Paradox” (2000) – चंतल माउफ, “For a justify Populism” (2018) – चंतल माउफ शामिल हैं।
इस किताब में लाकलाउ और माउफ ने पारंपरिक मार्क्सवादी सिद्धांतों को पुनर्व्याख्यायित किया और समाजवादी राजनीति के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। किताब ग्रामशी के “हेजेमनी” के विचार को आगे बढ़ाती है और दिखाती है कि सत्ता केवल आर्थिक नियंत्रण से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और वैचारिक नियंत्रण से भी चलती है। वे तर्क देते हैं कि पारंपरिक मार्क्सवाद केवल वर्ग संघर्ष पर ध्यान देता है, लेकिन समाज में अन्य कई संघर्ष भी मौजूद हैं (जैसे जाति, नस्ल, लिंग)। डिस्कोर्स (discourse) के महत्व को दिखाते हुए लाकलाउ और माउफ कहते हैं कि किस तरह भाषा, प्रतीक और विचारधारा सत्ता के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे पारंपरिक क्रांतिकारी मार्क्सवाद की जगह एक अधिक लोकतांत्रिक और बहुलतावादी समाजवाद की वकालत करते हैं।
“Hegemony and Socialist Strategy” पारंपरिक वामपंथी सिद्धांतों को चुनौती देती है और दिखाती है कि समाजवादी रणनीति को केवल वर्गीय संघर्ष तक सीमित नहीं रखना चाहिए। इस किताब का व्यापक प्रभाव वामपंथी राजनीति और उत्तर–आधुनिक सिद्धांतों पर पड़ा है। लाकलाउ और माउफ ने “Hegemony and Socialist Strategy” में पारंपरिक मार्क्सवाद की सीमाओं को उजागर किया और हेजेमनी के सिद्धांत को विस्तारित किया।
यह किताब सामाजिक आंदोलनों और वामपंथी राजनीति की नई रणनीतियों पर केंद्रित है। इसमें बताया गया है कि हेजेमनी (वर्चस्व) कैसे कार्य करती है और वामपंथी राजनीति को किस प्रकार अपने गठबंधनों और रणनीतियों को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है।
14. रोजा लक्ज़ेमबर्ग – “The Accumulation of Capital”
रोजा लक्ज़ेमबर्ग (1871–1919) एक मार्क्सवादी क्रांतिकारी, अर्थशास्त्री और समाजवादी विचारक थीं। वे पोलैंड में जन्मी थीं और जर्मनी में क्रांतिकारी राजनीति में सक्रिय थीं। लक्ज़ेमबर्ग का मानना था कि क्रांति केवल संगठित श्रमिकों के प्रयास से ही नहीं, बल्कि व्यापक जनता के आंदोलन से भी संभव है। वे सुधारवादी समाजवाद (Reformism) की आलोचक थीं और अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद की समर्थक थीं।
उनकी अन्य प्रमुख रचनाओं में “Reform or Revolution” (1899), “The Mass Strike, the Political Party and the Trade Unions” (1906) और “The Russian Revolution” (1918) शामिल हैं।
“The Accumulation of Capital” (1913) में लक्ज़ेमबर्ग ने मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की एक महत्वपूर्ण समस्या पर विचार किया—पूंजीवाद में पूंजी का संचय कैसे होता है? वे यह दिखाती हैं कि पूंजीवाद केवल आंतरिक बाजारों पर निर्भर नहीं रह सकता, बल्कि उसे निरंतर विस्तार की आवश्यकता होती है। इसके लिए पूंजीवादी देशों ने गैर–पूंजीवादी समाजों का शोषण किया। लक्ज़ेमबर्ग ने तर्क दिया कि मार्क्स के “Das Kapital” में बताए गए आर्थिक मॉडल में यह नहीं बताया गया कि पूंजीवाद अपने उत्पादन को बनाए रखने के लिए लगातार नए बाजारों की खोज क्यों करता है। उन्होंने समझाया कि क्यों पूंजीवादी देश उपनिवेशों को जबरदस्ती अपने व्यापारिक और वित्तीय तंत्र में शामिल करते हैं। लक्ज़ेमबर्ग के अनुसार, पूंजीवाद की अनियंत्रित वृद्धि अंततः संकट और युद्ध को जन्म देती है।
लक्ज़ेमबर्ग की यह किताब साम्राज्यवाद, पूंजी संचय और वैश्विक अर्थव्यवस्था को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान है। इसे लेनिन और अन्य मार्क्सवादी विचारकों की आलोचना मिली, लेकिन यह आज भी वामपंथी अर्थशास्त्र में एक महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है। रोजा लक्ज़ेमबर्ग ने “The Accumulation of Capital” में दिखाया कि पूंजीवाद अपने विस्तार के लिए गैर–पूंजीवादी समाजों का शोषण करता है। इस पुस्तक में पूंजीवाद के आर्थिक पहलुओं और उसके अंतर्निहित विरोधाभासों का विश्लेषण किया गया है। लक्ज़ेमबर्ग बताती हैं कि कैसे पूंजीवाद अपने अस्तित्व के लिए लगातार विस्तार की जरूरत महसूस करता है, जिसके कारण साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद को बढ़ावा मिलता है।
15. वाल्टर रॉडनी – “How Europe Underdeveloped Africa”
वाल्टर रॉडनी (1942–1980) गुयाना के एक मार्क्सवादी इतिहासकार, अकादमिक और क्रांतिकारी नेता थे। वे अफ्रीकी इतिहास, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद पर अपनी गहन शोध के लिए जाने जाते हैं। रॉडनी का मानना था कि यूरोप ने अफ्रीका को केवल लूटा ही नहीं, बल्कि उसकी आर्थिक और सामाजिक प्रगति को व्यवस्थित रूप से बाधित भी किया। वे ‘पैन–अफ्रीकनिज़्म‘ (Pan-Africanism) के समर्थक थे और उन्होंने अफ्रीका और कैरिबियन में क्रांतिकारी आंदोलनों का समर्थन किया। उनकी हत्या 1980 में गुयाना सरकार के इशारे पर कर दी गई थी।
यह किताब 1972 में प्रकाशित हुई और इसमें रॉडनी ने यह दिखाया कि अफ्रीका की गरीबी प्राकृतिक नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद का परिणाम है। रॉडनी बताते हैं कि कैसे यूरोपीय देशों ने अफ्रीका के संसाधनों को लूटा और उसकी अर्थव्यवस्था को कमजोर किया। वे बताते हैं कि कैसे अफ्रीका का सामाजिक और राजनीतिक विघटन हुआ। उपनिवेशवाद ने किस तरह अफ्रीका की पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं को तोड़ा, जिससे वहां दीर्घकालिक अस्थिरता पैदा हुई। साथ ही अफ्रीका की आर्थिक गिरावट के लिए जिम्मेदार यूरोपीय देशों ने अफ्रीका को केवल कच्चे माल का आपूर्तिकर्ता बनाकर उसकी औद्योगिक और आर्थिक प्रगति को रोका। इसी तरह विकास के पश्चिमी मॉडल की आलोचना करते हुए रॉडनी दिखाते हैं कि कैसे पश्चिमी विकास मॉडल अफ्रीका के लिए विनाशकारी साबित हुआ।
“How Europe Underdeveloped Africa” उपनिवेशवाद और नवसाम्राज्यवाद (Neocolonialism) पर लिखी गई सबसे प्रभावशाली पुस्तकों में से एक है। यह किताब अफ्रीका और ग्लोबल साउथ में आज भी क्रांतिकारी राजनीति के लिए प्रेरणा का स्रोत है। वाल्टर रॉडनी ने “How Europe Underdeveloped Africa” में यूरोपीय साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के कारण अफ्रीका की गरीबी को उजागर किया। रॉडनी इस पुस्तक में तर्क देते हैं कि यूरोप ने अफ्रीका को सिर्फ संसाधनों का आपूर्तिकर्ता बनाकर उसे पिछड़ा बनाए रखा। यह किताब उपनिवेशवाद और वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के आर्थिक और सामाजिक प्रभावों का गहन विश्लेषण करती है।
16. जॉन रीड – “Ten Days That Shook the World”
जॉन रीड (1887–1920) एक अमेरिकी पत्रकार, लेखक और कम्युनिस्ट क्रांतिकारी थे। वे रूस की 1917 की अक्टूबर क्रांति के चश्मदीद गवाह थे और उन्होंने इस क्रांति को अंतरराष्ट्रीय श्रमिक वर्ग के लिए एक ऐतिहासिक जीत के रूप में देखा। रीड अमेरिकी वामपंथी आंदोलन से जुड़े थे और Communist Labor Party of America के संस्थापकों में से एक थे। वे सोवियत संघ की राजनीति में भी सक्रिय रहे और मास्को में ही उनकी मृत्यु हो गई।
यह किताब अक्टूबर क्रांति (1917) के दौरान रूस में हुई घटनाओं का जीवंत वर्णन है। यह क्रांति की प्रत्यक्ष रिपोर्टिंग है– रीड ने खुद क्रांति का अनुभव किया और अपनी आँखों देखी घटनाओं को विस्तार से लिखा। यह किताब बोल्शेविक क्रांति का एक सहानुभूतिपूर्ण विवरण प्रस्तुत करती है, जिसमें यह दिखाया गया है कि कैसे लेनिन और उनके साथी रूस में समाजवादी शासन स्थापित करने में सफल हुए। रीड ने लेनिन, ट्रॉट्स्की और अन्य क्रांतिकारियों के साथ–साथ आम जनता की भूमिका को भी विस्तार से बताया। यह किताब अमेरिकी और पश्चिमी समाज के लोगों के लिए समाजवादी क्रांति को समझाने का एक प्रयास थी।
“Ten Days That Shook the World” समाजवादी क्रांतियों पर लिखी गई सबसे महत्वपूर्ण रिपोर्टों में से एक मानी जाती है। इसे लेनिन ने भी सराहा और आज भी यह क्रांतिकारी आंदोलनों के लिए एक प्रेरणादायक दस्तावेज है। जॉन रीड ने “Ten Days That Shook the World” में अक्टूबर क्रांति का प्रत्यक्ष और जीवंत वर्णन किया। यह किताब 1917 की रूसी क्रांति का एक सजीव वर्णन है। रीड, जो खुद क्रांति के दौरान रूस में मौजूद थे, घटनाओं को प्रत्यक्षदर्शी की तरह प्रस्तुत करते हैं। यह किताब एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है जो समाजवादी आंदोलनों को समझने में मदद करती है।
17. पेरी एंडरसन – “Passages from Antiquity to Feudalism”
पेरी एंडरसन (जन्म 1938) एक ब्रिटिश इतिहासकार और मार्क्सवादी विचारक हैं। वे लंबे समय तक New justify Review के संपादक रहे हैं और ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical Materialism) के दृष्टिकोण से यूरोपीय इतिहास का विश्लेषण करने के लिए प्रसिद्ध हैं। एंडरसन की लेखनी समाजशास्त्र, इतिहास और राजनीति को आपस में जोड़ती है।
“Considerations on Western Marxism” (1976), “Spectrum: From Right to justify in the World of Ideas” (2005) और “The Indian Ideology” (2012) उनकी प्रमुख कृतियां हैं।
1974 में प्रकाशित यह किताब पश्चिमी यूरोप में प्राचीन समाजों से लेकर मध्ययुगीन सामंती समाज तक के संक्रमण की ऐतिहासिक प्रक्रिया की व्याख्या करती है। रोमन साम्राज्य और उसके विघटन का विश्लेषण करते हुए एंडरसन बताते हैं कि कैसे रोमन साम्राज्य का पतन एक लंबी प्रक्रिया थी, जो अंततः सामंती व्यवस्थाओं में तब्दील हो गई। सामंती समाज की उत्पत्ति पर वे लिखते हैं कि सामंतवाद (Feudalism) किसी एक घटना का परिणाम नहीं था, बल्कि यह एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जिसमें उत्पादन के तरीके और सामाजिक संबंध बदले। क्लास स्ट्रगल (वर्ग संघर्ष) की भूमिका पर उन्होंने कहा कि कैसे दास प्रथा से मुक्त श्रमिकों का उदय हुआ और उन्होंने सामंती समाज में प्रवेश किया। भू–संपत्ति और उत्पादन प्रणाली पर किताब यूरोप के विभिन्न हिस्सों में कृषि उत्पादन और ज़मींदारी व्यवस्थाओं के अंतरों का भी विश्लेषण करती है।
“Passages from Antiquity to Feudalism” को इतिहास और समाजशास्त्र में मार्क्सवादी विश्लेषण के एक महत्वपूर्ण योगदान के रूप में देखा जाता है। यह दिखाती है कि इतिहास केवल राजनीतिक घटनाओं का क्रम नहीं, बल्कि उत्पादन और सामाजिक संबंधों में परिवर्तन की कहानी है।
18. पेरी एंडरसन – “Lineages of the Absolutist State”
“Lineages of the Absolutist State” (1974) में एंडरसन यह समझाने की कोशिश करते हैं कि कैसे यूरोप में सामंती व्यवस्थाओं से आधुनिक राष्ट्र–राज्य (Absolutist State) का विकास हुआ। सामंतवाद से राजतंत्र तक के सफर का वर्णन करते हुए उन्होंने दिखाया कि मध्यकालीन सामंतवाद से आधुनिक राजतंत्रों का उदय कैसे हुआ। अलग–अलग देशों में अलग–अलग रूप (फ्रांस, इंग्लैंड, स्पेन और रूस) में सत्ता का केंद्रीकरण कैसे हुआ, यह विश्लेषण किया गया। राज्य और पूंजीवाद के संबंध में उन्होंने बताया कि शुरुआती आधुनिक राज्य कैसे उभरते पूंजीवाद से जुड़ा था, लेकिन पूरी तरह पूंजीवादी नहीं था। बुर्जुआ क्रांतियों की भूमिका पर एंडरसन बताते हैं कि क्यों कुछ देशों में राजशाही बनी रही, जबकि कुछ में क्रांतियों ने बुर्जुआ लोकतंत्र की स्थापना की।
“Lineages of the Absolutist State” को यूरोपीय इतिहास में राज्य, सत्ता और सामाजिक संरचना को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक माना जाता है। यह पश्चिमी यूरोप और पूर्वी यूरोप में राजशाही के विकास को विस्तार से समझाती है।
19. इमैनुएल वालेर्स्ताइन – “The Modern World-System”
इमैनुएल वालेर्स्ताइन (1930–2019) एक अमेरिकी समाजशास्त्री और विश्व–प्रणाली सिद्धांत (World-Systems Theory) के प्रणेता थे। उन्होंने वैश्विक पूंजीवाद और असमानता को समझने के लिए इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान को एक साथ जोड़ा।
“Historical Capitalism” (1983), “After Liberalism” (1995) और “World-Systems Analysis: An Introduction” (2004) उनकी प्रमुख रचनाएं हैं।
“The Modern World-System” (1974) में वालेर्स्ताइन ने वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के उदय को ऐतिहासिक दृष्टि से समझाया। उन्होंने दिखाया कि पूंजीवाद केवल एक आर्थिक प्रणाली नहीं, बल्कि एक वैश्विक सामाजिक संरचना है। कोर–परिधि (Core-Periphery) मॉडल में उन्होंने दुनिया को तीन भागों में विभाजित किया:
– कोर (Core) – आर्थिक रूप से विकसित देश (यूरोप, अमेरिका)।
– अर्ध–परिधि (Semi-Periphery) – वे देश जो बीच की स्थिति में हैं (जैसे, ब्राज़ील, भारत)।
– परिधि (Periphery) – गरीब देश जो संसाधनों की आपूर्ति करते हैं और विकसित देशों पर निर्भर हैं (अफ्रीका, लैटिन अमेरिका)।
औपनिवेशिक शोषण और असमान विकास के बारे में उन्होंने बताया कि कैसे यूरोप और पश्चिमी देश औपनिवेशिक देशों का आर्थिक शोषण करके समृद्ध हुए। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का विश्लेषण करते हुए वालेर्स्ताइन ने दिखाया कि आधुनिक विश्व पूंजीवाद कैसे औपनिवेशिक शासन और बाद में नव–औपनिवेशिक नियंत्रण पर आधारित रहा।
“The Modern World-System” वैश्विक पूंजीवाद और असमानता को समझने के लिए एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। वालेर्स्ताइन की वर्ल्ड–सिस्टम थ्योरी आज भी सामाजिक विज्ञान और वैश्विक राजनीति में एक महत्वपूर्ण विचारधारा है। इमैनुएल वालेर्स्ताइन ने “The Modern World-System” में वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था और असमानता का एक व्यापक सिद्धांत प्रस्तुत किया। यह किताब वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के ऐतिहासिक विकास को समझाने के लिए “वर्ल्ड–सिस्टम” दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। इसमें वैश्विक असमानताओं और उपनिवेशवाद के प्रभावों का गहरा विश्लेषण किया गया है।
20. एंटोनियो ग्राम्शी – “Selections from the Prison Notebooks”
एंटोनियो ग्राम्शी (1891-1937) इटली के एक प्रमुख मार्क्सवादी विचारक, राजनीतिक कार्यकर्ता और पत्रकार थे। वे इटली की कम्युनिस्ट पार्टी (PCI) के सह–संस्थापक थे। 1926 में बेनिटो मुसोलिनी की फासीवादी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 1937 में जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई।
“Selections from the Prison Notebooks” ग्राम्शी की जेल में लिखी गई नोटबुक्स का संकलन है, जिसे उनके समर्थकों और विद्वानों ने संकलित किया। यह किताब 1971 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई। ग्राम्शी को जेल में रहते हुए लिखने की अनुमति थी, इसलिए उन्होंने फासीवाद, राज्य, संस्कृति, और विचारधारा पर गहन अध्ययन किया। उन्होंने अपनी सोच को प्रतिबंधों के बावजूद कोड भाषा में लिखकर संरक्षित किया। इस किताब में उन्होंने “हेजेमनी” (Hegemony), “सिविल सोसाइटी” और “वार ऑफ पोजिशन” जैसी अवधारणाओं को विस्तार से समझाया।
ग्राम्शी की इस किताब ने आधुनिक मार्क्सवादी विचारधारा, सांस्कृतिक अध्ययन और पोस्ट–कोलोनियल थ्योरी को गहराई से प्रभावित किया। “हेजेमनी” की उनकी अवधारणा यह समझने में मदद करती है कि पूंजीवादी समाजों में सत्ता सिर्फ दमन से नहीं, बल्कि सहमति के माध्यम से भी कायम रहती है। उनके विचार पश्चिमी मार्क्सवाद, नारीवाद, शिक्षा, और मीडिया अध्ययन में एक बुनियादी स्तंभ बन चुके हैं।
इन किताबों का प्रभाव और ऐतिहासिक चुनौतियां
कुल मिलाकर, इन पुस्तकों ने इतिहास, राजनीति और समाजशास्त्र की पारंपरिक व्याख्याओं को चुनौती दी और नए दृष्टिकोण विकसित किए। हावर्ड ज़िन, क्रिस हरमन और रणजीत गुहा की किताबों ने इतिहास को सत्ता के बजाय जनता के नजरिए से देखने की परंपरा को मजबूत किया। ज़िन ने अमेरिकी इतिहास की प्रचलित व्याख्याओं को चुनौती दी, जबकि गुहा ने किसानों और हाशिए पर रहे समूहों के प्रतिरोध को एक केंद्रीय स्थान दिया।
डेविड हार्वे, माइकल पैरेंटी और एलेन वुड की किताबों ने पूंजीवाद को स्वाभाविक मानने की धारणा को तोड़ा और दिखाया कि कैसे यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है, जिसमें असमानता और शोषण निहित हैं। हार्वे की पुस्तक ने नवउदारवादी नीतियों के दुष्प्रभावों को उजागर किया, जो आज भी नीति–निर्माताओं और आलोचकों के बीच चर्चाओं का विषय बनी हुई है।
सिल्विया फेडेरिसी और फ्रेडरिक एंगेल्स की किताबों ने यह दिखाया कि कैसे पितृसत्ता, राज्य और संपत्ति का जन्म एक साथ हुआ और कैसे महिलाओं को इतिहास में हाशिए पर रखा गया। फेडेरिसी की किताब ने नारीवादी अध्ययन में नए दृष्टिकोण विकसित करने में मदद की।
माइकल पैरेंटी और एरिक हॉब्सबॉम की किताबों ने दिखाया कि कैसे साम्राज्यवाद और फासीवाद एक ही आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों का परिणाम हैं। पैरेंटी ने पूंजीवाद और फासीवाद के गहरे संबंधों को उजागर किया, जबकि हॉब्सबॉम ने औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी ताकतों की भूमिका को विस्तृत रूप से बताया।
इन पुस्तकों ने आने वाले शोधकर्ताओं और लेखकों को ऐतिहासिक घटनाओं और सामाजिक संरचनाओं को देखने के नए तरीके दिए। आने वाले वर्षों में, नवउदारवाद, पर्यावरणीय संकट, और असमानता पर केंद्रित नई किताबें इन्हीं पुस्तकों की परंपरा को आगे बढ़ाएँगी। हेजेमनी, वर्ग संघर्ष, लिंग भेद और जन आंदोलनों पर होने वाले नए शोध इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर आगे बढ़ेंगे।
इन सभी किताबों का मुख्य उद्देश्य सत्ता, शोषण और सामाजिक असमानताओं के मूल कारणों को उजागर करना है। ये लेखक इतिहास और राजनीति को परंपरागत दृष्टिकोण से अलग हटकर देखने की कोशिश करते हैं और आम लोगों, श्रमिकों, महिलाओं और किसानों की भूमिका को इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान देते हैं।
इन पुस्तकों का मुख्य उद्देश्य पूंजीवादी व्यवस्था और उससे जुड़े सामाजिक ढाँचों की आलोचना करना है। डेविड हार्वे ने नवउदारवाद की आर्थिक और राजनीतिक रणनीतियों को उजागर किया। सिल्विया फेडेरिसी ने पूंजीवाद और पितृसत्ता के गठजोड़ को चुनौती दी। फ्रेडरिक एंगेल्स ने परिवार, संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति का विश्लेषण किया।
ये सभी किताबें बताती हैं कि समाज की संरचना किस तरह ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के तहत विकसित हुई और सत्ता ने हमेशा श्रमिकों, महिलाओं और हाशिए पर मौजूद लोगों का शोषण किया है।