India Protests 2014-2024

मोदी सरकार के दौर में विरोध: क्यों और कैसे गढ़ा गया झूठा नैरेटिव?

सचिन श्रीवास्तव

2014 में एनडीए गठबंधन की सरकार के सत्ता में आने के बाद एक लगातार दोहराया जाने वाला झूठ यह है कि इस सरकार ने विरोध को सीमित कर दिया है और विपक्ष या जनता सरकार के खिलाफ सड़कों पर लड़ाई नहीं लड़ रही है, जबकि आप देखें कि इसी दौर में कुछ सबसे अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए हैं। और इसकी शुरुआत एनडीए गठबंधन — जिसे पापुलर मीडिया में मोदी सरकार कहा जाता है— के 2014 में सत्ता में आते ही हो गई थी और लगातार सरकार के खिलाफ जनता की लामबंदी मजबूत हुई है। हां यह सच है कि इसे राजनीतिक रूप से एकजुट करने वाली ताकतें बिखरी रही या फिर यह एक नरैटिव गढ़ने में नाकायमाब रही। फिर भी सरकार के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ उठती रही हैं। अगर बीते 10 साल के आंदोलनों का अध्ययन करें, तो साफ़ दिखता है कि विरोध प्रदर्शन न केवल बढ़े हैं, बल्कि पहले की तुलना में अधिक संगठित और व्यापक भी हुए हैं। अब सवाल उठता है कि यह भ्रम क्यों और कैसे फैला कि बीते 10—11 साल में विरोध की आवाजें कम हो गई हैं। इसके कारणों को समझते हैं।

विरोध दबाने की राजनीति
मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही विरोध प्रदर्शनों को ‘राष्ट्रविरोधी’ करार देने की रणनीति अपनाई। इससे पहले, जब यूपीए सरकार के दौरान बड़े-बड़े आंदोलन हुए—जैसे निर्भया कांड के बाद का प्रदर्शन या फिर अन्ना हजारे का आंदोलन—तो इन्हें जनता की आवाज़ के रूप में देखा गया। लेकिन 2014 के बाद, जब FTII के छात्रों ने विरोध किया, जब ऑक्युपाई UGC हुआ, जब रोहित वेमुला के लिए देशभर में आंदोलन हुए, या जब CAA-NRC के खिलाफ शाहीन बाग़ में महिलाएं सड़क पर उतरीं— तो सरकार और समर्थक मीडिया ने इन्हें देशद्रोह, टुकड़े-टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल जैसे टैग देकर बदनाम करने की कोशिश की।

इसका मकसद दोहरा था— एक तरफ़ विरोध करने वालों को अलग-थलग करना, दूसरी तरफ़ बाकी जनता को यह यकीन दिलाना कि कोई विरोध हो ही नहीं रहा।

बड़े और ऐतिहासिक विरोधों का दौर
2014 के बाद देश में कई ऐतिहासिक विरोध हुए, जो इससे पहले के दशकों में कम ही देखने को मिले थे। इसमें 2015 का FTII विरोध प्रदर्शन अहम है। पुणे के फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट के छात्रों ने गजेंद्र चौहान की नियुक्ति के खिलाफ लंबा आंदोलन किया। इस आंदोलन के समर्थक समूह को भी यह उम्मीद नहीं थी कि मुठ्ठी भर छात्रों का यह आंदोलन 139 दिन तक चलेगा। लेकिन इस आंदोलन ने छात्रों को नई उर्जा दी। यह विरोध ऑक्युपाई UGC (2015) आंदोलन का आधार बना। इसमें रिसर्च स्कॉलरशिप खत्म करने के खिलाफ छात्रों ने बड़ा प्रदर्शन किया। ऑक्युपाई UGC आंदोलन के दौरान देश भर के विश्वविद्यालयों के छात्रों के बीच एक संवाद कायम हुआ और यह संवाद रोहित वेमुला आंदोलन (2016) के दौरान देश व्यापी प्रदर्शनों की नींव बना। दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद पूरे देश में शिक्षा संस्थानों में भेदभाव को लेकर आवाज़ उठी।

इसी तरह JNU और जामिया आंदोलन (2016, 2019) को राष्ट्रविरोधी ठहराने की साजिश के बावजूद, ये विरोध सरकार की नीतियों के खिलाफ मज़बूती से खड़े रहे।

सिर्फ छात्रों के आंदोलन ही नहीं इसके और भी कई बड़े उदाहरण हैं। नोटबंदी का विरोध (2016-17) इसमें अहम है, जिसमें आर्थिक संकट के बाद छोटे व्यापारियों और किसानों ने प्रदर्शन किए। साथ ही भीमा कोरेगांव आंदोलन (2018) को नहीं भूलना चाहिए, जिसमें दलित समुदाय के कई कार्यकर्ताओं को जेल में भी डाला गया।

इसी क्रम में CAA-NRC विरोध (2019-20) एक जरूरी आंदोलन है, जिसने सरकार की नीतियों के खिलाफ अहिंसक आंदोलनों की दिशा में एक नया अध्याय लिखा। शाहीन बाग़ प्रदर्शनों के ऐतिहासिक विरोध ने महीनों तक सरकार की नागरिकता नीति को चुनौती दी। इस बीच कोविड ने आंदोलन को खत्म किया। और सरकार को यह खमख्याली हुई कि कोविड के बीच वह किसानों के खिलाफ भी कानून ला सकती है, लेकिन महामारी की परवाह न करते हुए किसानों ने आंदोलनों के इतिहास को नए सिरे से परिभाषित किया। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन (2020-21) स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े विरोध प्रदर्शनों में से एक था, जिसने सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया।

इसी तरह अग्निपथ योजना का विरोध (2022) हो या फिर मणिपुर हिंसा के खिलाफ विरोध (2023) का सिलसिला, जिसमें जातीय हिंसा को लेकर सरकार की चुप्पी के खिलाफ बड़े प्रदर्शन हुए। यह ऐतिहासिक आंदोलन थे, लेकिन फिर भी यह नैरेटिव बना कि विरोध ख़त्म हो गए हैं?

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मीडिया की भूमिका: विरोध को गायब करने की साजिश
असल में जैसा कि हम सभी जानते हैं कि 2014 पहले के दौर में मीडिया विपक्ष और विरोध प्रदर्शनों को कवरेज देता था, जिससे जनता को पता चलता था कि सरकार से असहमति रखने वाले भी हैं। लेकिन 2014 के बाद से मुख्यधारा की मीडिया ने सरकार समर्थक भूमिका अपनाई और विरोध प्रदर्शनों को या तो दबा दिया या फिर उन्हें विकृत रूप में दिखाया। इसका उदाहरण है कि शाहीन बाग़ आंदोलन को ‘देशविरोधी’ बताया गया, किसान आंदोलन को ‘खालिस्तानी’ करार दिया गया, JNU और जामिया के छात्रों को ‘अर्बन नक्सल’ कहा गया। जब आंदोलन को नकारात्मक छवि दे दी जाती है, तो जनता के बड़े हिस्से को लगता है कि वे ‘देश के दुश्मनों’ का समर्थन नहीं कर सकते। यही मीडिया का एजेंडा था— विरोध को जनता से काट देना।

सरकारी दमन और डिजिटल निगरानी
सरकार ने डिजिटल युग में विरोध को दबाने के लिए कई रणनीतियां अपनाईं हैं। एक तो विरोध प्रदर्शनों के दौरान इंटरनेट बंद करना (जैसे किसान आंदोलन में हुआ)। दूसरे, सोशल मीडिया पर विरोध करने वालों पर मुकदमे दर्ज करना। फिर UAPA और राजद्रोह जैसे कानूनों का दुरुपयोग कर कार्यकर्ताओं को जेल में डालना। इन तरीकों से सरकार यह दिखाना चाहती थी कि कोई विरोध नहीं है, जबकि असल में यह डर और दमन का माहौल था।

राजनीतिक विरोध का कमजोर होना
इस भ्रम की एक बड़ी वजह कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की कमजोरी भी है। असल में इन आंदोलनों में छुटपुट राजनीतिक लोग रहे हैं, लेकिन असल में यह छात्रों और आम नागरिक समूहों के ही आंदोलन थे। इसी राजनीतिक खालीपन का फायदा उठाकर यह नैरेटिव बनाया गया कि सरकार के खिलाफ कोई ठोस विरोध नहीं है। जबकि जमीनी स्तर पर छात्र, किसान, मजदूर और नागरिक लगातार आंदोलन कर रहे थे।

लोकतंत्र को “निर्वाचन आधारित” बनाना
असल में लोकतंत्र में आंदोलन सरकार और जनता के बीच संवाद का काम करते हैं। सरकारें जब जनता की बात नहीं सुनती हैं, तो जनता को सड़कों पर उतरना ही होता है। यह सामान्य लोकतांत्रिक नियम है, लेकिन एनडीए सरकार ने विरोध को इस तरह पेश किया कि “जनता ने चुनाव में हमें चुना है, इसलिए हमारा हर फैसला सही है।” जबकि लोकतंत्र महज चुनाव जीतने तक सीमित नहीं है, उसमें जनता की भागीदारी और असहमति के बिना यह महज एक राजकीय व्यवस्था हो जाती है।

विरोध दबाने की साजिश नाकाम
इसके बावजूद यह साफ है कि मोदी सरकार ने चाहे जितनी कोशिश की हो, लेकिन सच्चाई यही है कि भारत में विरोध पहले से कहीं ज्यादा हुआ है। हां, इसे दबाने की कोशिशें जरूर तेज़ हो गई हैं, लेकिन किसान आंदोलन और CAA आंदोलन जैसे उदाहरण बताते हैं कि जनता जब एकजुट होती है, तो सरकार को झुकना ही पड़ता है।

इसलिए, यह कहना कि ‘अब कोई विरोध नहीं हो रहा’— महज़ एक भ्रम है, एक प्रोपेगेंडा है। असलियत यह है कि इस दौर में लोग पहले से कहीं ज्यादा सवाल पूछ रहे हैं। क्योंकि सवाल हैं भी ज्यादा।

असहमति का अधिकार और व्यापक असर
दिलचस्प है कि यह आंदोलन महज सरकार विरोधी नहीं थे, बल्कि ये लोकतंत्र और असहमति के अधिकार की रक्षा के लिए थे। इनका असर व्यापक है।

FTII और ऑक्युपाई यूजीसी आंदोलन (2015) के जरिये छात्रों ने यह दिखाया कि अकादमिक संस्थानों पर जबरन सरकार का नियंत्रण लोकतंत्र के लिए खतरा है। यह लड़ाई आगे चलकर NEP 2020 और शैक्षणिक आज़ादी के मुद्दों पर बहस का आधार बनी।

इसी तरह JNU और जादवपुर यूनिवर्सिटी आंदोलन (2016-2019) के जरिये छात्रों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारी हमलों का विरोध किया और विश्वविद्यालयों को सरकार की कठपुतली बनने से रोका।

किसान आंदोलन (2020-2021) ने सरकार को मजबूर किया कि वह तीन कृषि कानून वापस ले और यह साबित किया कि लगातार संघर्ष से नीतियां बदली जा सकती हैं।

CAA-NRC आंदोलन (2019-2020) में जब देशभर में अल्पसंख्यकों, महिलाओं और छात्रों ने संविधान की रक्षा के लिए आंदोलन किया तो यह भारत के सबसे बड़े अहिंसक आंदोलनों में से एक बन गया।

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भीमा-कोरेगांव आंदोलन (2018) के बाद जातिगत भेदभाव और दलित उत्पीड़न के खिलाफ जन-जागरूकता बढ़ी। इस आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर जेल में रखा गया, जिससे सरकार की दमनकारी नीति उजागर हुई।

पेगासस और पत्रकारिता पर हमले (2021-2022) के जरिये दिखाया कि सरकार अपने आलोचकों की निगरानी कर रही है। यह आंदोलन डिजिटल स्वतंत्रता की जरूरत को फिर से केंद्र में लाया।

महिला पहलवानों के विरोध प्रदर्शन (2023-2024) में पहलवानों ने यौन शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। तो मणिपुर हिंसा पर महिलाओं ने सरकार की निष्क्रियता का विरोध किया।

यह महज कुछ उदाहरण हैं, असल में 2014 से 2024 के बीच दर्जनों आंदोलन हुए हैं, जिनकी भूमिका राष्ट्रव्यापी है। इन आंदोलनों से स्पष्ट है कि जनता ने अपनी आवाज़ बुलंद करने में कोई कमी नहीं की है। विरोध की ये लहरें लोकतंत्र की जीवंतता को दर्शाती हैं, जहां जनता अपने अधिकारों और मुद्दों के प्रति सजग है।

अब धीरे-धीरे यह साफ हो रहा है कि सरकार को जो “विरोधहीन” देश बनाने का सपना था, वह पूरा नहीं हुआ है। किसान आंदोलन की दूसरी लहर फिर उठ रही है। महंगाई और बेरोज़गारी पर जनता सवाल पूछ रही है। मणिपुर, हरियाणा, महाराष्ट्र में सरकार के खिलाफ लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं।

इन आंदोलनों ने यह दिखाया कि सरकार को चुनौती देने के लिए सिर्फ विपक्षी दलों की जरूरत नहीं, बल्कि जनता का संगठित प्रतिरोध ही असली विपक्ष है। जो सरकार विरोध को खत्म करने की कोशिश करती है, वह खुद एक दिन विरोध की लहर में बह जाती है।

बीते दिनों हुए आंदोलनों की सूची
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) आंदोलन (2015): पुणे स्थित इस संस्थान के छात्रों ने गजेंद्र चौहान की अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का विरोध किया, जो 139 दिनों तक चला। छात्रों का मानना था कि उनकी नियुक्ति संस्थान की साख के लिए उचित नहीं थी।

ऑक्युपाई यूजीसी आंदोलन (2015): यूजीसी द्वारा गैर-नेट फेलोशिप को बंद करने के फैसले के खिलाफ छात्रों ने दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किया, जो देशभर में फैल गया।

पाटीदार आरक्षण आंदोलन (2015): गुजरात में पाटीदार समुदाय ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग को लेकर बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए।

जेएनयू विवाद (2016): देशद्रोह के आरोप में कुछ छात्रों की गिरफ्तारी के बाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विश्वविद्यालय स्वायत्तता के मुद्दे पर व्यापक बहस और विरोध प्रदर्शन हुए।

रोहित वेमुला आत्महत्या मामला (2016): हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन को जन्म दिया।

जाट आरक्षण आंदोलन (2016): हरियाणा में जाट समुदाय ने आरक्षण की मांग को लेकर व्यापक प्रदर्शन किए, जो हिंसक भी हुए।

उना दलित अत्याचार विरोध (2016): गुजरात के उना में दलित युवकों पर अत्याचार के खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हुए।

नोटबंदी विरोध प्रदर्शन (2016): नवंबर 2016 में 500 और 1000 रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण के फैसले के बाद विभिन्न हिस्सों में विरोध प्रदर्शन हुए।

भीमा-कोरेगांव हिंसा (2018): महाराष्ट्र में भीमा-कोरेगांव युद्ध की 200वीं वर्षगांठ पर हिंसा के बाद दलित संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किए।

एससी/एसटी एक्ट में संशोधन विरोध (2018): सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलित संगठनों ने भारत बंद का आयोजन किया।

मीटू आंदोलन (2018): महिलाओं ने कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाई, जिससे कई प्रमुख व्यक्तियों पर आरोप लगे।

कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के बाद विरोध (2019): जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा हटाने के बाद विभिन्न हिस्सों में विरोध और समर्थन में प्रदर्शन हुए।

सीएए-एनआरसी विरोध प्रदर्शन (2019-2020): नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ देशभर में व्यापक प्रदर्शन हुए।

किसान आंदोलन (2020-2021): कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर लंबे समय तक आंदोलन किया, जो अंततः सरकार द्वारा कानूनों को वापस लेने पर खत्म हुआ।

हाथरस गैंगरेप मामला (2020): उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित लड़की के साथ हुए गैंगरेप और उसकी मौत के बाद, न्याय की मांग को लेकर देशव्यापी प्रदर्शन हुए।

लव जिहाद कानून विरोध (2020): उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में लव जिहाद के खिलाफ कानूनों के प्रस्ताव के बाद विरोध प्रदर्शन हुए।

पेगासस जासूसी मामला (2021): सरकार पर पत्रकारों, नेताओं और कार्यकर्ताओं की जासूसी के आरोपों के बाद, संसद और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन हुए।