Year 2020

Year 2020: डर और दहशत के बीच ताकतवर सरकारों से लड़ना सिखा गया साल 2020

Year 2020साल 2020 (Year 2020) बीत चुका है लेकिन जाते जाते इतिहास पर कुछ ऐसी लकीरें खींच गया है, जो लंबे समय तक याद रखी जाएंगी। आंदोलन की गूंज से शुरू हुआ यह पूरा साल सत्ता और जनता के बीच कश्मकश का दस्तावेज भी है। इसी दस्तावेज को हर्फों में उकेरा है भोपाल के संस्कृतिकर्मी और भोपाल सत्याग्रह, कोविड कम्यूनिटी किचन से गहराई से जुड़े अब्दुल हक ने।

साल ख़त्म होने पर भी जारी है 2020 (Year 2020) में शुरू हुआ आंदोलन

अब्दुल हक

दिसंबर 2019 में अब्दुल पंचर वाले के साथ देश के हर कमज़ोर, दलित, पिछड़े आदिवासी के वजूद को ताक़त के बलबूते चुनौती दी गई थी। देश की संसद में नंबर की ताक़त में मगरूर सरकार के सामने संवैधानिक प्रक्रिया हार गई थी। ऐसा नहीं कि ताक़तवर सत्ता ने ये पहली बार किया था। इससे पहले उसने अपनी ताक़त के बल से भारत के एक राज्य से उसका संविधान छीनकर अपने अधीन कर लिया था।

हमेशा की तरह इस बार भी सत्ता ने देश के बहुसंख्यक वर्ग में यह प्रचार किया कि ये सिर्फ अब्दुल पंचर के वजूद पर सवालिया निशान है। जिसे देश के बहुसंख्यक ने हाथों हाथ लेकर अब्दुल पंचरवाले को देश निकला देने के लिए अपनी खामोश हामी दे दी। देश के गिने—चुने लेफ्टिस्ट, लिबरल, सेक्युलर और छात्रों ने ताक़त के सामने अपनी एकजुटता का मुजाहिरा किया जिसके चलते सत्ता की ताक़त ने इनका दमन करना शुरू कर दिया। पहले जे एन यू के छात्रों को पीटा। फिर पूंजीपतियों के स्वयं सेवक ने जिसे अभी अभी छोटा हिंदुस्तान कहा है, उस अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को भी पुलिसिया डंडों ने खूब रौंदा। उसके बाद जामिया यूनिवर्सिटी में एक बार फिर ताक़त ने अपने बल से छात्रों के नैतिक बल को कुचलने की नाकाम कोशिश में कोई कमी नहीं की।

छात्रों का झंडा दादियों के हाथ में
इस बार देश में जो हुआ वो बलशाली सत्ता ने सोचा भी नहीं था। ना ही ऐसा देश में पहले कभी हुआ था। इन छात्रों की मदद के लिए दिल्ली की बुजुर्ग दादियों ने कमान संभालकर एनआरसी, सीएए, एनपीआर विरोधी आंदोलन को नई दिशा देकर अपनी वजूद की लड़ाई को धार देते हुए 2019 को ख़त्म कर दिया।

जो देश में हो रहा था उससे भोपाल अछूता नहीं था। 2020 के आगमन का स्वागत भोपाल के युवाओं ने गाँधी के रास्ते चलकर सत्याग्रह से किया जिसकी ज़मीन भी दिसंबर में ही तैयार हो चुकी थी।

Year 2020

हम कागज़ नहीं दिखाएंगे
10 दिसंबर को मानव अधिकार दिवस पर पहचान संबंधी काले कानूनों का विरोध करके, फिर 16 दिसंबर को छात्रों का विरोध प्रदर्शन, 19 दिसंबर को भोपाल के इकबाल मैदान में धारा 144 होने के बावजूद संवैधानिक तरीके से शांति पूर्ण विरोध जताया गया। उसके बाद भोपाल के युवाओं का जमावड़ा कभी वीआईपी रोड पर नारेबाजी करता तो कभी ताजुल मसाजिद की सीढ़ियों पर इंकलाबी गानों से विरोध करते हुए 29 दिसंबर तक एक रैली की शक्ल में ताजुल मसाजिद की सीड़ियों तक पहुंचते रहे। ये सिलसिला 1 जनवरी 2020 को इकबाल मैदान के सत्याग्रह में तब्दील हो गया।

ये आन्दोलन जितना अब्दुल पंचर वाले का था उतना ही ज़माओ, अर्शियों, आरतियों, सरवरों, के साथ भोपाल के लिबरल, लेफ्टिस्ट, सेक्यूलर जमात का भी था। अब भोपाल के युवाओं के हाथ में संविधान आ चुका था। वो सत्ता पक्ष मध्य प्रदेश सरकार जो उस समय कांग्रेस की थी उसके हर दबाव के सामने मजबूती से संविधान पकडे डटा हुआ था।

जनता के तम्बू के नीचे जनता का सत्याग्रह
भोपाल के लिए साल 2020 कुछ अलग ही मायने इसलिए भी रखता है कि बिना किसी नेता की रहनुमाई में जनता का आन्दोलन शुरू किया गया। भोपाल सत्याग्रह की शुरुआत जनता ने की और पहली बार ऐसा हुआ कि जनता के तम्बू के नीचे, जनता की दरियों पर जनता खुद अपना आन्दोलन चला रही थी। जनता की मांगें थीं, जनता के हाथ में माइक था। उसे ऐसा कभी नहीं लगा उसके लिए किसी लीडर की जरूरत है। भोपाल के युवा जो कभी लक्ष्मी टाकीज़ में अपना वक्त बर्बाद किया करते थे, वो रातों को सत्याग्रह के तम्बू में आकर संविधान पर चर्चा कर रहे थे। वो ये जानने के लिए उत्सुक थे उनके अधिकार क्या हैं? वो वहां इस बात पर बहस कर रहे थे, कि चुनाव में सेवक बनके आने वाला उनका मालिक कैसे बन जाता है? वो रात रात भार संविधान के किसी भी अनुच्छेद पर बात किया करते थे। कभी दुनिया में जितनी भी क्रांतियाँ हुई हैं, उनपर चर्चा करते थे।

भोपाल की महिलाओं के हाथ में माइक
जिस देश में महिलाओं ने कमान संभाल रखी थी यहाँ भोपाल में भी पहली बार मुस्लिम महिलाओं के हाथ में माइक थे। वो बुलंद आवाज़ में नारों के साथ अपनी आवाज़ बुलंद कर रही थी। इकबाल मैदान सत्याग्रह भोपाल में गांधीवादी सोच का आधार बनता जा रहा था। एनआरसी विरोधी मुहिम के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, मजदूर, किसान, महिला अधिकार के साथ सांस्कृतिक चेतना भी शुरू हो चुकी थी। हर दिन नए विषय पर चर्चा सत्याग्रह का रूटीन बन चुका था।

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हर दिन जिस तरह देश में अलग अलग जगह शाहीन बाग़ बन रहे थे, प्रदेश में भी कहीं सत्याग्रह तो कहीं शाहीन बाग तैयार हो चुके थे। देश में आन्दोलनकारियों पर अगर सबसे ज्यादा कही ज़ुल्म किया गया है वो यूपी है। देश में ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हो चुकी थी कि मुसलमान देश का नासूर है और ताक़तवर सरकार उनको यहाँ से खदेड़ देगी। सरकार ने ताक़त के साथ उसका दमन किया और जिसकी वजह से 50 से ज्यादा लोगों की जाने गईं। कई लोगों को यूएपीए लगाकर जेलों में बंद कर दिया गया।

भारत बंद का मिलाजुला असर
इसी 29 जनवरी को वामसेफ का भारत बंद का एलान होता है और देश में जिनको उर्दू नाम से चिढ़ है, जिन्हें लगता था कि वो अकेले इस देश के मालिक है। उन्होंने अपनी दुकानों पर बोर्ड लगा लिया था कि हम इन कानूनों के साथ हैं और 1 घंटे पहले दुकान खोलेंगे। ये लड़ाई भारतीय वर्सिस राष्ट्रवादी भारतीय हो जाती है।

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शाहीन बाग़ पर हमले
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार कभी इंदौर में दमन कर रही थी, तो कभी जबलपुर में आंदोलनकारियों को डरा रही थी। डर और दहशत के बावजूद दिल्ली में और देश की अलग अलग जगहों पर आन्दोलन जारी रहा। आन्दोलन कारियों और सरकार के बीच सुप्रीम कोर्ट आ जाता है और संवाद करवाता है। जहाँ सुप्रीम कोर्ट भी इनकी मांगों को नज़रंदाज नहीं कर पाता उसे चुप्पी साधनी पड़ती है।

दिल्ली खून से सींची जा रही थी और पूंजीपतियों के स्वयं सेवक का नमस्ते ट्रम्प
प्रधान मंत्री कपड़ों से पहचानने की बात करते हैं। अमित शाह क्रोनोलाजी की बात करते करते शाहीन बाग़ में करंट लगने की बात करते रहे। प्रवेश वर्मा विवादित बयान देते रहे। दिल्ली चुनाव में हार के बाद और ताक़तवर सरकार के रंगदार कार्यकर्ता कपिल मिश्रा ने पुलिस के ऐन सामने आन्दोलनकारियों को धमकाकर दिल्ली को दंगों की आग में झोंक दिया। ताक़तवर सरकार नमस्ते ट्रम्प के लिए अहमदाबाद की झुग्गियों को ईटों से छुपाने का काम कर रही थी। पूंजीपतियों के स्वयं सेवक अपने महाझूठे दोस्त के साथ गलबहियां कर रहे थे और दिल्ली खून से सींची जा आ रही थी।

नमस्ते ट्रम्प के बाद जहां देश में कोरोना अपने पैर पसार रहा था, मध्य प्रदेश में सत्ता पलट का खेल खेला जा रहा था। हर दिन कोरोना बढ़ता जा रहा था प्रदेश में भाजपा अपनी ताक़त के बल पर सत्ता में वापस आ जाती है।

Year 2020

सरकार के लिए कोविड बना धारदार हथियार
अब सरकार के हाथ में कोविड 19 नाम का नया हथियार आ जाता है। जनता कर्फ्यू के थाली ताली घंटों के साथ साथ देश से बलशाली सरकार 21 दिन के वादे पर तालाबंदी की घोषणा कर देती है। देश जो पहले से ही मंदी की मार झेल रहा था। उसके ऊपर तालाबंदी कहर बन जाती है। सरकार कोरोना से लड़ने की जगह हर बार जनता से उलटे सीधे काम पर लगाए रखती है। सब कुछ बंद होने के बाद देश में हर जगह भुखमरी फ़ैल जाती है। सरकार अपने आपको बचाती रहती है। पूरे देश में एक बार फिर विशेष समुदाय के खिलाफ नफरत का माहौल पैदा किया जाता है जिसे तबलीगी जमात के नाम से जाना जाता है।

इस बार भी देश का बहुसंख्यक समाज बलशाली सरकार के प्रोपोगंडा को आगे बढ़ाने में लग जाता है और पूरे देश में कोरोना जिहाद छेड़ने का काम गोदी मीडिया अपने हाथ में ले लेती है। इस वक़्त दुनिया खुद देखती है जिसे वो भगवान खुदा मानती है, अपने सारे होने वाले कामों का करने वाला जिन्हें मानती है ताला बंदी उन सबको भी बंद कर देती है। भगवान का मंदिर, अल्लाह का घर, नानक साब का गुरुद्वारा, यूशु का चर्च, देश और दुनिया में अब कोई अदृश्य शक्ति किसी के काम नहीं आती है। अगर कोई काम आता है तो एक इंसान दूसरे इंसान के काम आता है।

शाहीन बाग़ और सत्याग्रह का कम्युनिटी किचिन में बदलना
इस बार भी देश के सबसे खतरनाक आतंकवादी लोग जो विशेष समुदाय से आते हैं। जिन्होंने कुछ दिन पहले देश की सड़कों पर कब्ज़ा किया हुआ था खालिस्तानियों के साथ अर्बन नक्सल देश में भूखों को खाना खिलाने के काम में लग जाता है। देश में जिस सरकार को जहाँ मौका मिलता है वो इस बात को जताने की कोशिश करती है सरकार सब कर रही है।

अब देश डंडे के जोर पर ही चलेगा
कोविड के साथ देश इंस्पेक्टर राज में पूरा तब्दील हो चुका है। अब देश में सब कुछ पुलिस ही है। पुलिस देश की तालाबंदी, क़ानून व्यवस्था संभालने का काम करती है। और पुलिस को डंडा तो विरासत में मिला है। ये डंडा सिर्फ दिखाने के लिए नहीं होता है वो अपने डंडे का बेजा इस्तेमाल शुरू कर देती है। जहाँ मौका मिलता वहां तो बजाती ही है और जहाँ मौका ना भी हो डंडा चलाने से बाज नहीं आती है। इस बीच डॉक्टर्स के साथ कुछ पुलिस वाले मसीहा बनके भी आते है।

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मार्मिक पलायन
इस बिना किसी तैयारी के किये गये तालाबंदी के दुष्परिणाम आना शुरू हो जाते है पलायन से देश में मजदूरों का पलायन शुरू होता है जो रुकने का नाम नहीं लेता। उसी पलायन की भेंट चढ़ जाते है 16 से अधिक मजदूर जो पटरी पर सो रहे थे जिन्हें ट्रेन रौंद कर चली जाती है। बलशाली सरकार के कान में जूं भी नहीं रेंगती है। हताश परेशां भूखे मजदूर शहर से पैदल चलते हुए घरों को निकलते हैं। यहाँ भी सरकार अपनी तरफ से सोनू सूद से ज्यादा कुछ नहीं कर पाती है। इस बुरे दौर में जनता अपनी हैसियत से बढ़कर मजदूरों की मदद करती है। यहाँ भी सड़कों पर विशेष समुदाय के जिहादी और अर्बन नक्सल एंटी नेशनल एलिमेंट ही थे जो प्रवासी मजदूरों से बात कर रहे थे, उनके दुःख दर्द सुन रहे थे। उन्हें उनकी मंजिल तक पहुंचाने में उनकी मदद कर रहे थे।

5 किलो गेंहू, 1 किलो चना जिंदा रहने के लिए काफी
सरकार बड़ी मदद का एलान करती है। कहती है कि वो 20 लाख करोड़ रूपये की राहत दे रही है। मगर वो ये नहीं बताती कि ये 20 लाख करोड़ कौन से हैं? वर्ष 2019—20 के बजट में इतनी रकम ही बची थी जिसे सरकार नए नाम से जनता के सामने रखती है। सरकार गरीबों के लिए 5 किलो गेंहू, 1 किलो चना देने का एलान करती है। गोदी मीडिया एक बार फिर पलायन की कमियों को छुपाते हुए देश को बताती है कि सरकार कितना कुछ कर रही है। एक तरफ हर दिन कोविड के मरीज़ बढ़ रहे होते हैं उधर बलशाली सरकार अपना बल का प्रयोग करते हुए बहुसंख्यक समाज को ये समझाने की कोशिश करती है कि दुनिया में अगर किसी ने कोविड पर काबू पाया है तो वो ही है।

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SSR जस्टिस की आड़ में नए शिक्षा कानून पर सवालों से बचना
इसी बीच गोदी मीडिया को कोरोना जिहाद के बाद सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या मामले में नेपोटिज्म मिल जाता है जिसे पूरी तरह भुना कर खुद न्यायालय बन देश के सामने अपना फैसला सुना देती है कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या नहीं की, उसकी हत्या हुई है। 24 घंटे महीने भर गोदी मिडिया के पास बस एक ही काम बचता है— जस्टिस फॉर SSR

इसी बीच जुलाई आते आते सरकार 10+2 की जगह 5+3+3+4 की नई शिक्षा नीति ले आती है। जिसे मीडिया सिरे से ही गायब कर देती है। सरकार ने कोविड को हथियार बनाकर ही सारा खेल खेला है। ना किसी से बातचीत ना सलाह मशवरा अपने बल का प्रयोग करते हुए देश पर नई शिक्षा नीति थोप देती है। इस बलशाली सरकार के विरोध में जाना, इसके बल से नहीं डरने वालों को जेल भेजना, उन्हें मारना उसके लिए वाहवाही का काम है। इसी बीच डॉ कफील की ज़मानत और कपिल मिश्रा के भड़काऊ बयान के मुकाबले गांधीवादी बात पर उमर खालिद का UAPA में जेल जाना पड़ता है।

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हाथरस में यू पी सरकार की नापाक करतूत
उत्तर प्रदेश की क़ानून व्यवस्था अपने सबसे निचले पायदान पर पहुंच चुकी थी जब एक दलित बालिका के साथ हुए गैंगरेप के बाद हत्या के मामले में पहले FIR नहीं लिखना और जब मामला तूल पकड़ता है, तो पीड़िता की लाश को परिवार के बिना ही दाह संस्कार कर देना। देश में हर तरफ गुस्सा आंदोलन के रूप में निकलता है। मगर उत्तर प्रदेश सरकार उस पीड़ित परिवार को अपने पुलिसिया गुंडों के बीच नज़रबंद कर लेती है। इस घटना के बाद प्रशासन विपक्ष को तो रोकता है, साथ में 4 उर्दू नाम वालों पर UAPA लगाकर बंद कर देती है।

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कोरोना में अति प्रगति के बावजूद किसान विरोधी कानूनों का अध्यादेश
कोविड से बचाव के उपाय निकालने की जगह ये सरकार किसान विरोधी बिल पर अध्यादेश ले आती है, जिसे पंजाब और हरियाणा के किसान सिरे से खारिज कर पटरियों पर धरने के लिए बैठ जाते हैं। 2 महीने से ज्यादा पटरियों पर बैठने के बाद देश का किसान आह्वान करता है कि दिल्ली चलो तो सरकार किसानों के रास्ते में गढ्ढा कर देती है। सर्दी में उसके ऊपर वाटर केनन चलायी जाती है और हमेशा की तरह इस बार भी किसान आन्दोलन को खालिस्तान, पाकिस्तानी बताया जाता है, तो किसान को दिग्भ्रमित करार भी दिया जाता है।

अब्दुल पंचर वाले के आन्दोलन से शुरू हुआ साल किसान आन्दोलन के साथ ख़त्म हो जाता है। आन्दोलन जारी है।

भोपाल के लिए 2020 इस लिहाजा से बहुत सकारात्मक रहा कि जहाँ भोपाल में 2 दर्जन के करीब नए युवा लीडर सामने आये। जो निरंतर अपनी लडाई जारी रखे हुए हैं और आगे समाज और देश को नई दिशा देने के लिए तैयार हैं।