।। सभी किस्म की सत्ताओं के नाम ।।

(शमशेर बहादुर सिंह को पढ़ते हुए)
सचिन श्रीवास्तव
एक आवाज। एक विरोध। बौना सा, अदना सा। मुट्ठी भर आंखें उनकी। हांफते हुए प्रतिरोध की तख्ती उठाए हैं। कुछ देर बाद खांसने लगेंगे। कितनी देर खड़े रह पाएंगे। धूप है, बारिश है। कारों की रेलमपेल है। बच्चों के स्कूल हैं, दुनिया जहान के काम हैं।

फिर भी इतनी बेचैनी।

कवि कर ही चुका था आगाह। “वह खटका है, उनके लिए। अकेला होते हुए भी। इतना कि उसे मार डालने का भी किया विचार।”

आखिर वे सारे षड़यंत्र सामने आ गए। डराने धमकाने से पहले। उसका इतिहास रखा सामने। देखो, उसने एक बार चुराई थी एक टॉफी। एक बार खेल के दौरान छुपा ली थी गोटी। वह विश्वसनीय नहीं है। वह रात को जागता है। सूर्योदय के बाद तक सोता रहता है।

विविध ऐतिहासिक उदाहरणों के हासिल को रखा सामने। जैसे लाभ हानि के गणित से करते हैं व्यापार। विरोध को भी जिन्होंने बनाया था इतिहास में सफलता की सीढ़ी। उनके दिखाये चेहरे। बावजूद इसके कि वह अकेले हैं। सब के सब।

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तमाम प्रपंच नहीं आए काम, तो नये सवालों से खारिज करने का हुआ संधान। तुमने पैदा होने के पहले क्यों नहीं किया विरोध। उसके पहले भी थे कई विरोध के मुद्दे। तुम्हारे बाप—दादा चुप रहे हर बार, तुम्हारे सहोदर सब फिसल चुके हैं। कुछ हारकर, कुछ थककर हो गए हैं नतमस्तक। तो तुम कौन से हो अनूठे। देखो उनके कारनामे। उनका करो विरोध, हमारा नहीं। हम तो बस अभी आए हैं सत्ता की गलियों में।

जिन्होंने किया ही नहीं कोई काम बिना फायदे के तराजू में हासिल को तौले। उनके लिए अनूठी और अबूझ रही यही बात कि कोई बिना जवाब की उम्मीद के क्यों पूछ रहा है सवाल। हर कोण से देखा गया, विरोध से उपकृत होने की हर संभावना को। जवाब नकारात्मक रहा। तो हुए बेचैन। अब वे जानते थे एक बात। बेहद साफ। इन अकेले लोगों का शिकार करना ही पड़ेगा उन्हें। आज नहीं तो कल। सही वक्त पर।

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वे भूल जाते हैं। यह विरोध कुचल भी दिया, या फिसल भी गया, रपट भी गया, तो आगे पूछेगा कोई और-निष्कंटक नहीं होगी तुम्हारी आखेट पद्धिति। अपना चेहरा जब भी देखोगे- हर बार एक नया दाग जुड़ जाएगा।

फिर आएंगे लोग तख्तियां उठाये। बस फर्क इतना होगा कि तब तक सत्ता पर नहीं रहोगे तुम भी।

जैसे बदलेगा तुम्हारा निजाम। बदलेंगे तख्ती उठाने वाले हाथ भी।