फंतासी के धुंध के आगे की कवितायेँ

अमूमन ब्लॉग, फेसबुक आदि पर जो कविता लिखी जा रही है, उससे कभी कभी घिन आने लगती है। अभी कुछ दिन पहले मित्र संदीप पांडे ने भी इस संबंध में सवाल उठाया था, और समय-समय पर यह बात सामने आती रही है कि यह सुविधाजनक कविताएं हैं। जो महज निजी एकालाप की शक्ल में कुछ भावुकता से साथ घर, परिवार, देश, समाज पर अपनी लिजलिजी राय रखती है। संभवतः और अधिक पढ़ने पर यह राय बदल जाये, लेकिन अभी तक जितनी कविताएं ब्लॉग-फेसबुक आदि पर पढ़ीं हैं, उनसे तो पूरे दृश्य  के 90 प्रतिशत हिस्से पर ऐसी ही गैर-राजनीतिक, गैर-सरोकारी कविताओं की भरमार दिखती है। हालांकि यह एक अलग प्रश्न  है, कि उन्हें कविता कहना भी चाहिए या नहीं। बहरहाल, नई कविता के बारे में बन रही इस बुरी राय को बदलने की ही कोशिश  में मैंने कुछ की वर्ड्स के साथ फेसबुक पर सर्च करना शुरू किया और पंखुरी सिन्हा की कविताओं से परिचित हुआ। पता चला कि पंखुरी सिन्हा, वर्चुअल दुनिया की हिंदी कविता का जाना पहचाना नाम हैं, लेकिन मैं इनकी कविताओं से कुछ देर में परिचित हुआ। संपर्क करने पर उन्होंने अपनी कुछ कविताएं भेजीं, जो विभिन्न साइट्स पर प्रकाशित हो चुकी हैं। यह सोशल मीडिया की हिंदी कविताओं के प्रतिनिधि तो नहीं, लेकिन एक जरूरी स्वर की कविताएं हैं। उनकी कविताएं घर के टूटने, मां-बहन-भाई-पिता के दुलार और फूल-पत्ती से आगे की कविताएं हैं। जब हमारे समय से सबसे अच्छी कविताएं न हों, तो बेहतर की संभावना से भरी कविताएं भी सुकून देती हैं, पंखुरी सिन्हा की कविताएं इसकी मिसाल हैं। 
‘‘मेरी पश्तो”  में वे एक ऐसी भाषा के प्रति सम्मान दिखाती हैं, जो बाजार से बाहर है। साथ ही भाषा के साथ जुड़ी उस संस्कृति को भी नजरअंदाज नहीं करतीं, जो मेहनतकश आवाम की पूंजी है। वे उस जनता के ज्ञान के प्रति नतमस्तक होती हैं, जो ‘‘बता सकते हैं, खैबर और गोलन के रास्ते, उंचाई कंचनजंघा की, शिवालिक  की तराइयां, और बता सकते हैं, एक से दूसरी जगह पहुंचने के तरीके‘‘। इन कविताओं के विषय आकर्षित करते हैं। ‘‘सियासती एक आवाज‘‘ में वे राजनीति की तमाम बुराइयों के बावजूद सजग हैं, कि आखिरकार बदलाव और बेहतरी का रास्ता राजनीतिक जमीन से ही तैयार होता है। ‘‘परमानेंट बशिन्दगी  की फंतासी‘‘, ‘‘माइक्रोफोन‘‘, ‘‘धुंध कुहासों जैसी बातें‘‘ आदि कविताओं में एक सजग नजर जीवन के कोने में पड़े अनुभवों को केंद्र में लाती हैं। 
एक बहुत छोटी कविता है पंखुरी की, ‘‘संधि‘‘ महज छह लाइन की इस कविता का दायरा बहुत व्यापक है। ताकतवर की शर्त मानकर जीने वालों की मजबूरी और खिलाफत करने वालों के साहस, दोनों को यह कविता बारीक फर्क के साथ देखती है। एक कविता में वे कर्ण को के बहाने वे दलित समुदाय से किये गये छल को बेनकाब करती हैं। सदियों से उन्हें मारने में इस्तेमाल छलों को वे एक श्रृंखला में सामने लाती हैं और खूबसूरत रचनात्मकता से इसे स्थायी अनुभव में बदल देती हैं। कुल मिलाकर यह कविताएं महज शब्दों का समुच्चय न होकर, कहने की बेचैनी और देखने की समझ से भरी हुई हैं और इस संभावना को थोड़ा और पुष्ट करती हैं कि आखिरकार कविता का काम तलछट के जीवन की  मुश्किलों  को सामने लाना और मुठभेड़ के तरीके ईजाद करना है। उम्मीद करनी चाहिए कि पंखुरी की कविताएं लंबे समय तक याद रहेंगी और मेहनतकश  आवाम के जीवन की बेहतरी के प्रति आश्वस्त  करती रहेंगी। यहां प्रस्तुत उनकी कविताएं पहले ही ‘‘इन्फोटूमीडिया‘‘, ‘‘खबर इंडिया‘‘, ‘‘लेखक मंच‘‘, ‘‘जनज्वार‘‘, ‘‘पूर्वाभास‘‘ और ‘‘सृजनकथा‘‘ आदि साइट्स पर प्रकाशित हो चुकी हैं। यहां वे सभी कविताएं साभार एक साथ देने की वजह है कि पाठक इन कविताओं के एक साझा स्वाद से परिचित हो सकें। -मॉडरेटर

मेरी पश्तो

मुझे तो बिल्कुल नहीं आती पश्तो,
 डोगरी कुमाऊँनी,
 गढ़वाली,
मुझे तो बिल्कुल नहीं आता,
पहाड़ चढ़ना,
कोई इल्म नहीं मुझे ढलान का भी,
 गुफाओं का कन्दराओं का,
वो लोग जो पाठ्यक्रम से ज्यादा जानते हों,
हिन्दुकुश और काराकोरम का भूगोल,
वो बता सकते हैंखैबर और गोलन के रास्ते,
ऊंचाई कंचनजंघा कीशिवालिक की तराईयाँ,
और बता सकते हैंएक से दूसरी जगह पहुँचने के तरीके,
उस एक से दूसरी जगह,
जिनके बीच सरहद पड़ती हो।
 सियासती एक आवाज़
सियासती एक आवाज़,
अगर आपसे ऐसी कुछ मांगें करती हो,
कि क़त्ल करना पड़े,
आपको अपना हर प्रेमी,
हर प्रेम,
और प्रेमी के होने का हर मंसूबा,
कुछ ऐसे नामांकन हों,
आपका प्रेमी बनते ही,
गुप्तचर सेवा में उसका,
आप ही पर नज़र रखने के लिए,
बताने के लिए तमाम घरेलू आदतें आपकी,
तो कैसे मुखातिब हुआ जाये,
इस सियासत से?
कब और कहाँ?
कैसे पेश की जाये बात अपनी?

परमानेंट बाशिंदगी की फंतासी
पाने में निजात उस भयानक दर्द से,
भयानक तकलीफ से उस,
कुछ सभालने में उसे,
हज़ार किस्सेहजारों कहानियां,
हज़ार तस्वीरों के खांचे,
हज़ार फंतासियाँ चल कर उसके पास आयीं थीं,
उसने बुलायीं थीं,
पर जो सबसे कारगर था,
उसका सपना वह,
बसने का वहां,
पाने का वह पहचान पत्र,
बतौर बाशिंदा,
परमानेंट पहचान पत्र,
परमानेंट बाशिंदगी का पहचान पत्र,
हर दम के लिए,
हमेशा के लिए,
ताकि फिर बदलना  पड़े घर,
लेटे  रहना पड़ेसुबह उकड़ू,
आधे आधे सपनेसवाल लपेटे,
खालीबिलकुल तन्हा,
सिर्फ साथ उनकाजो बरसों से,
ऐसे दफ्तरों की लाइनों में खड़े हैं,
अधूरी अधूरी नागरिकताओं में ज़िन्दगी जीते,
भयानक ठंढ में पार करते सड़क,
थामे अपनी काँपती हुई रूह को,
काँपते हुए वजूद को,
दहल गए वजूद को,
पाते भयानक सुकून,
अचानक बगल में  गए,
उस वृद्ध के झुर्रीदार चेहरे में,
जो है आपके पडोसी देश का,
और जो देश बन गया है पर्याय,
युद्ध कायुध्भूमि का।
 माइक्रोफोन
यूँ तो स्कूल कॉलेजो में भी,
माइक्रोफ़ोन के दिन होते हैं,
स्वतंत्रता दिवस के गीत,
गणतंत्र दिवस का जयघोष,
पुष्प वर्षा झंडोत्तोलन के बाद की,
बांस की लकड़ी में बंधा तिरंगा,
नीला वह अशोक चक्र बच्चों के हाथों में,
दिन भर का पारितोषिक,
उल्लासउमंग,
विकटउत्साह का दिन,
और मंदिरमस्जिदगुरूद्वारे में होते हैं माइक्रोफोन के दिन,
सुबह से शाम तक प्रार्थना के दिन,
पड़ोसी का धर्म बदल देने के दिन,
जब धर्म निरपेक्ष बाँटते हो पर्चे,
खिलाफ़ माइक्रोफोन के,
और बिलकुल तटस्थ रहता हो,
विष्णु का सुदर्शन चक्र,
और शांत रहते हों देवताओं के सभी अस्त्र,
और हुरदंग होती हो सबसे ज़्यादा स्पोर्ट्स डे की,
फिर एक नया फंक्शन आता है स्कूल में,
फिल्म की शूटिंग का फंक्शन,
फ़िल्मी शूटिंग का दिन,
कुछ बच्चे चुने जाते हैंपरदे पर जाने के लिए,
फिर स्कूल में बड़े लोगों के आने का मौसम आता है,
बड़े सवालों का मौसम,
फिर माइक्रोफोन के नए मौसम आते हैं,
नयीनयी जगहों पर माइक्रोफोन से साक्षात्कार होता है,
बाज़ारों में संतुष्टि और पसंद के सवालों के साथ,
टेलीविज़न के स्क्रीन पर बड़ी बड़ी रपटों में,
पर जबसे दिलवा करउससे एक बेहद राजनीतिक भाषण,
हर किसी की तस्वीर लगाई गयी थीमाइक्रोफोन में बोलते,
उसका बोलने का जज्बा कुछ मद्धम हो गया था।

 धुंधकुहासों जैसी बातें
पश्मिने के शाल पर कढाई की नहीं,
पश्मिने के असल होने के अन्वेषण की बातें,
बातें अनुसन्धान की,
उस गर्माहट में होने की बातें,
खालिस कश्मीरी उच्चारण में,
पश्मिने की बातें,
कश्मीरी आवाज़ में ढेरों ढेर पश्मिने की बातें,
जैसे पश्मिने की खेती,
जैसे भेड़ पालना,
इन सब गरम गुनगुने ख्यालों से दूर,
यांत्रिक कुहासों की बातें,
जैसे कदम कदम पर रुकना,
लोकल ट्रेन का,
जैसे अलगअलगलोकल ट्रेनों में सफ़र,
अलगअलगशहरों में,
बस निरंतरता सफ़र की,
और पहुंचना कहीं नहीं,
उलझे रहना,
ढेरों दफ्तरी फाइलों में,
ढेरों दफ्तरी फाइलें,
निपटाने को,
रिपोर्टचिट्ठियाँ,
और बातें, घर,पत्नी बच्चों की,
मसरूफियत की,
और आना चायकॉफ़ी पर,
सारे दोस्तों का,
पकौड़ों का कुरमुरापन,
तलते बेसन की खुशबू,
तलछट कड़ाही की,
बचा तेल,
पत्नी की सूघड़ता,
महीने के खर्च का हिसाब,
धनियेपुदीने,गुड़ और टमाटर की चटनी,
यहाँ तक कि इमली की भी,
चटखारेदार बातें,
और बीच में,
दफ्तरी फ़ोन का आहिस्ता बजना,
और सवाल ढेरों ख़ुफ़िया,
पेशानी पे बल,
माथे की लकीरें,
वो तमाम बातें जिनसे बनी होती हैं,
लोगों की ज़िंदगियाँ,
ज़िन्दगी की तमाम खूबसूर्तियाँ,
और बातें ईमान कीं,
ढेरों ढेर ईमान की,
तराज़ू में तोलने की,
लोगों के ईमान को,
रूह कीज़मीर की,
पुरुषत्व कीवर्चस्व की,
उन तमाम एहसासों की,
जो दफ्तर से घर,
और घर से दफ्तर,
आतेजाते हासिल होता है।
संधि
 जो लोग संधि नहीं करते,
उनकी एक फितरत होती है,
संधि यानी कुबूलना शर्तें,
एक बेहद दबंग कार्य प्रणाली की,
उन्हें कत्ल किया जा रहा है दिन दहाड़े,
कईयों को सिर्फ उनके अधिकार  देकर।
रीतेरीतेमौसम में,
उम्मीदों के गुज़र जाने के मौसम में,
यहाँवहांदुबारा छला गया उसे,
हर किस्म की कोशिश में,
जहाँ मुक़म्मल होने थे,
सारे सपने,
जहाँ दुबारा नाकारा गया उन्हें,
वहां मुड़कर देखते हुए,
दुबारा सब कुछ को,
बड़ीबड़ीदुकानों को,
जिनके इर्दगिर्दबुने गएहजारों जाले,
सपनों केयुद्ध के,
हिंसा के,
वहां मुड़कर देखनासब कुछ को,
भयानक शीत लहरी के बाद की धूप में,
जिन्होंने किया होसूरज के यूँ निकलने का इंतजार,
वो कर सकते हैं सवाल।
लेकिनगूंजता है खालीपन
सवाल का,
एक भयानक नर संहार के बाद।
रक्त कोरोबी की कतार
जिस भयानक खुशबू में तुम लिपटी हो,
वह क्षणभंगुर भी हो सकती है,
और खतरनाक भी बेहद,
ये मिटटीये बालूये कंकड़,
ये गिट्टी,
पत्थर की खुशबू ये,
ये पाइप से पानी की,
ये नींव के डलने की,
ये मुल्तानी मिटटी के भींगने सी चिकनी खुशबू की,
ये लिपा पुती की नहींये सराबोर होने की,
ये पानी के फव्वारे की,
छलावा भी हो सकती है ये खुशबू,
एकएक ईंट के तोड़े जाने की,
कुछ घरों या सिर्फ एक घर के तोड़े जाने की,
फुटपाथ के भी चौड़ा किये जाने की,
मिटटी कोड़ने की,
ज़रूरी नहीं,
कि बाज़ार बनता हो वहां,
एक को उजाड़ कर,
दूसरे को बसाने का खेल पुराना है,
ये बसाने और उजाड़ने के खिलाडी पुराने हैं,
कुछ ज्यादा ताक़तवर हैं,
कुछ कम,
ये खेल कहीं ज्यादा ताक़तवर है,
कहीं कम,
पर अब भी बाज़ार हैं,
जितना बड़ा शहर, उतने बड़े बाज़ार,
जितना बड़ा देशउतना बड़ा बाज़ार,
बेशकीमत,
खूबसूरत,
इत्र की दुकानें हैं,
इत्र के नाम हैं,
जो खुशबुयों के नहीं,
और नाम बयां करने में,
उन खुशबुयों के,
उम्र बितायी जा सकती है,
पिरोने में शब्दों का जादू।
वो नहीं थामैं थी
कई बार किसी व्यक्ति में,
हम सिर्फ एक वक़्त को याद करते हैं,
ये एक पुरानी कहावत है,
पर वाकई वो नहीं था,
पहली बार का चूमना था,
यूनिवर्सिटी के पुराने दरख़्त थे,
फलतेफूलते,
पुरानीबेहद पुरानी किताबों में,
आदिम खुशबू थी,
जाने क्या सपने थे,
लिखावट थी,
महीन,
सूघड़,
कहीं मोटी,
लोगों की पेंसिल के निशान थे,
उसकी बातों मेंनीलेनीले बादल थे,
समूचा आकाशनीलीनीलीरोशनी,
नीले मेघउसकी आँखों के,
वो नहीं था,
मैं थी।
धुनों की पकड़ …
मकान मालकिन के टीवी और रेडियो से,
अत्यन्त प्रिय जनों को। 
खबरें शुरू हो रही थीं,
सबकुछ के वर्गीकरण का एक नया खेल था,
कैसी छूट थी किसेकहाँ तक पहुँचने के अवसर किन्हें?

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