मौजूदा समय की दो हिंसक प्रतिनिधि तस्वीरें

सचिन श्रीवास्तव

बीते दो दिनों से इंटरनेट पर दो तस्वीरें बेहद तेजी से प्रसारित हुई हैं। पहली तस्वीर गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर की है, जिसमें वे नाक में नली लगाए हुए विधानसभा पहुंचे हैं। बजट पेश करने के लिए। दूसरी तस्वीर कल तक नामालूम रही एक महिला की है, जिसने बीती सदी के सर्वश्रेष्ठ इंसानों में से एक को गोली मारने के दृश्य की नकल की है। यह दोनों ही तस्वीरें हमारे समय की बड़ी तस्वीर का मुकम्मल तो नहीं, लेकिन एक बड़ा हिस्सा तैयार करती हैं। 

राजनीति से बिछुड़ न पाने का संत्रास

पहले बात गोवा के मुख्यमंत्री की तस्वीर की। मनोहर पर्रिकर के राजनीतिक दोस्तों की संख्या उनके दुश्मनों से कहीं ज्यादा है। वे पार्टी के बाहर भी खासे लोकप्रिय रहे हैं और विभिन्न दलों, विचारों के बीच उनकी एक पॉजिटिव छवि बनी है। ऐसे समय में जब मुख्यमंत्रियों की अय्याशियों, अहंकार और वैभव के किस्से आम हों, तब भाजपा में उनका होना उम्मीद और उदाहरण की बात है। वाम दलों के मुख्यमंत्रियों के बरअक्स उनकी सादगी को खड़ा भी किया गया है।

पर्रिकर की कैंसर से जूझती छवि के बीच यह जो तस्वीर हाल ही में प्रसारित हुई है, इसे समझिये? क्या उदाहरण पेश करती है। काम करने का। जिंदगी की आखिरी सांस तक काम करते रहे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में शायद हम पर्रिकर जी को याद रखेंगे जिन्होंने अपने आखिरी समय में अस्पताल के बजाय काम करने को तरजीह दी। लेकिन ठहरिये, यहां दूसरा पहलू यह है कि जब आखिरी वक्त आ ही गया है, तो क्यों एक व्यक्ति मुख्यमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर है? क्यों किसी और को कमान नहीं सौंप देता? राज्य के नागरिकों को कुछ जरूरी निर्णयों की दरकार होगी, क्या एक बीमार व्यक्ति जिसके प्रति पूरी संवेदना है, लेकिन क्या उसका दिमाग एक राज्य के नागरिकों के भविष्य को सुनिश्चित करने के फैसले करने के लिए स्वस्थ्य है और दुनिया की उलझनों से मुक्त होकर क्यों नहीं अपने आखिरी सफर के पहले वह खुद को वक्त देता है?

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पूंजीवाद के लिए जरूरी है अतिरिक्त श्रम
हम नहीं जानते कि आने वाले वक्त में इन दोनों ही अतिरंजित संभावनाओं में से कौन सी इतिहास में दर्ज होगी? संभव है खुद पर्रिकर के दिमाग में ऐसा कुछ न हो, और वे बस अपने काम को अंजाम दे रहे हैं, लेकिन पूंजीवाद के इस भ्रष्टतम दौर में ऐसी तस्वीरें बेहद जरूरी हो जाती हैं। अपने आसपास नजर दौड़ाइये। कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होगा। आपके ऑफिस में, मोहल्ले में, आस-पड़ोस में, मिलने-जुलने वालों में, जिसका काम के प्रति समर्पण आपको और ज्यादा काम करने के लिए प्रेरित करता होगा। क्या यह वह समय नहीं है, जिसमें बहुत ज्यादा काम करने को दुनिया के सबसे महान गुणों में से एक माना जा रहा है। मैं हमेशा इस अत्याधिक काम करने की प्रवृत्ति के खिलाफ लिखता-बोलता-समझता रहा हूं। क्या सच में इंसान काम करने की मशीन भर है और काम भी जिसमें पूंजीवादी संस्थानों में महज एक उत्पादक प्रक्रिया का हिस्सा बना रहा जाए। उत्पादन प्रक्रिया में जब एक व्यक्ति अपने मूल क्षमता या तयशुदा घंटों से ज्यादा काम करता है, तो इसका सीधा अर्थ है कि वह एक बेरोजगार को अंधेरे में धकेल रहा है। दिलचस्प यह है कि ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण के जरिये हर एक को ऐसा करने की हिदायत धमकी भरे पुट में दी जाती है। धीरे—धीरे जब ऐसे लोगों की संख्या संस्थान में बढ़ जाती है, तब उस अतिरिक्त काम को ही सामान्य काम के घंटे मान लिया जाता है। मीडिया संस्थानों में काम करने के वाले युवा इस बात को अच्छी तरह महसूस करते होंगे। आठ घंटे की शिफ्ट कब 10 और 12 घंटों में तब्दील हो जाती है, उन्हें पता नहीं चलता है। यही हाल लगभग हर सेक्टर का है। काम के प्रति समर्पण और काम के बोझ में व्यक्ति को झौंकने का यह पूंजीवादी षडयंत्र पर्रिकर की हालिया तस्वीर से बल पाता है। विभिन्न आईटी समूहों में काम करते युवा हों या फिर गली-मोहल्लों में काम करने वाले असंगठित मजदूर सभी काम के तय घंटों से अधिक श्रम कर रहे हैं- हंसते-हंसते। और यही पूंजीवाद की बड़ी खूबी है। वह शोषण को उत्सव में तब्दील कर चुका है। जिसमें अतिरिक्त श्रम के कारण कम हुई नौकरियों को पाने वाले संभावित युवा सड़कों पर हैं।

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अंहिसक विचार पर हावी होती हिंसा

दूसरी तस्वीर हमारे समय की हिंसा का बड़ा रूपक है। 20वीं सदी में जब हमने पूरी दुनिया को हिटलर की हिंसा से त्रस्त दुनिया को अंहिसा से हासिल आजादी का नायाब विचार दिया था तो यह उम्मीद भी की गई थी कि बुद्ध और गांधी के देश में यह विचार तेजी से फलेगा-फूलेगा। बीती सदी के सातवें और आठवें दशक में फले-फूले नक्सलवाद को भी दो दशकों में समेट दिया और हिंसा को जमीन के भीतर गाढ़ दिया था, ऐसे में एक बार फिर जो हिंसक उन्माद फैल रहा है, वह डराता है। दिलचस्प है कि एक तरफ 90 के दशक में भारतीय युवाओं ने नक्सलवाद की हिंसा से मुंह मोड़ा था, और उसी दौर में हम फासीवादी हिंसा की जकड़ में आ रहे थे। आज कुछ ज्यादा ही। गांधी की तस्वीर को गोली मारने वाली सोच को तस्वीरों से बाहर हम हर रोज चौक चौराहों पर देख रहे हैं। यह भयावह है कि हत्या को सनसनीखेज बनाने के फिल्मी-खबरिया प्रयास अब आसानी से अभिनीत भी किए जाने लगे हैं।

अत्याधिक काम के जरिये किसी दूसरे के श्रम के महत्व को कम करने की पूंजीवादी हिंसा और मारे जा चुके व्यक्ति को फिर से मारने की निर्लज्ज उन्मादी हिंसा के इस घटाटोप में उम्मीद की किरणें बहुत धुंधली हैं, लेकिन वे हैं। उनकी पहचान जल्द करना जरूरी है।