भारतीय इंजीनियरिंग स्टूडेंट : 70 प्रतिशत नहीं नौकरी के लायक, फिर भी दुनिया भर में साख

3 सितंबर 2016 के राजस्थान ​पत्रिका में प्रकाशित

सचिन श्रीवास्तव 
मेट्रो मैन ई श्रीधरन ने भारतीय इंजीनियरिंग स्टूडेंट को दोयम दर्जे का करार देकर एक पुरानी बहस को नया मोड़ दे दिया है। “पेशेवर नैतिकता और इंजीनियर्स की भूमिका” विषय पर अपने भाषण में उन्होंने एक सर्वे के हवाले से कहा कि महज 29 प्रतिशत इंजीनियर्स ही नौकरी पाने के काबिल होते हैं। इस बयान पर विभिन्न सोशल फोरम में बहस छिड़ गई। पुरानी रिपोट्र्स, सर्वे से होती हुए यह बहस भारतीय शिक्षा व्यवस्था तक पहुंची। इसके केंद्र में यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि आखिर जब 70 प्रतिशत से ज्यादा भारतीय इंजीनियर्स नौकरी के काबिल नहीं हैं, तो पूरी दुनिया में कैसे उनकी साख बनी हुई है और क्यों वे विभिन्न क्षेत्रों में अव्वल हैं?

इंजीनियर्स का मास प्रोडक्शन
इनोवेशन और आईक्यू में बड़ी संख्या में भारतीय इंजीनियर्स कहीं नहीं ठहरते। इसके बावजूद अगर अमरीकी सिलिकॉन वैली से लेकर हांगकांग की आईटी इंडस्ट्री तक में भारत के इंजीनियर्स अव्वल हैं, तो इसकी वजह है, ज्यादा संख्या। भारत से हर साल 1.5 लाख नए इंजीनियरिंग ग्रेजुएट निकलते हैं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा है। दूसरे बड़े इंजीनियरिंग हब चीन और अमरीका के मुकाबले यह बहुत ज्यादा है। अमरीका से हर साल 30 से 40 हजार और चीन से हर साल 60 से 70 हजार इंजीनियरिंग ग्रेजुएट पास आउट होते हैं। नतीजतन बड़ा हिस्सा प्रतिस्पर्धी न होने के बावजूद खासी संख्या में बेहतरीन इंजीनियर्स भारत से निकलते हैं। भारत में इनके लिए मौकों की कमी होती है, इसलिए यह दुनिया के दूसरे देशों की ओर रुख कर जाते हैं और वहां वैश्विक मानदंडों के अनुसार, अपनी श्रेष्ठता साबित करने में सक्षम होते हैं।

इसलिए पिछड़ते हैं भारतीय छात्र
पुराना पाठ्यक्रम 
हालात: इंजीनियरिंग कॉलेजों में अभी भी 1992 और 94 की किताबें पढ़ाई जा रही हैं। कॉपोरेट्स अगर ग्रेजुएट्स को नौकरी के काबिल नहीं पाते हैं, तो इसकी बड़ी वजह पाठ्यक्रम है।
वजह: लंबे समय से पाठ्यक्रम बदला नहीं गया है। पुराने ढर्रे पर पढ़ाए जाने की प्रवृत्ति और बदलाव के प्रति नकारात्मक रवैया इसके आड़े आता है।

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अंग्रेजी की कमी
हालात: इन्फोसिस के संस्थापक एन. आर. नारायण मूर्ति से लेकर कई अन्य दिग्गज इस सवाल को उठाते रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले अधिकांश छात्रों की अंग्रेजी सही नहीं होती है। इस कारण प्रतिस्पर्धा में उन्हें पिछडऩा पड़ता है।
वजह: स्कूली स्तर पर अंग्रेजी के लिए माहौल नहीं। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा का ढांचा बेहद लचर।

सुविधाओं का अभाव

हालात: कॉलेजों में पुराने सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर इस्तेमाल किए जाते हैं। ज्यादातर में इनका मेंटेनेंस भी सही नहीं है। तकनीकी आधार पर भी आदर्श स्थिति नहीं। ज्यादातर शिक्षक भी  वैश्विक मानदंडों पर खरे नहीं।
वजह: कॉलेजों के लिए इंजीनियरिंग स्टूडेंट कमाई का जरिया हैं। जैसे-तैसे उन्हें पास आउट कराना ही अपनी जिम्मेदारी समझते हैं।

इनोवेशन और रिसर्च नदारद
हालात: विश्व के सर्वश्रेष्ठ इनोवेटिव संस्थानों में भारत काफी पिछड़ा है। रिसर्च पर भी बहुत कम खर्च किया जाता है।
वजह: सरकार का ध्यान रिसर्च की ओर नहीं है। छात्रों और शिक्षकों में भी इनोवेशन की कमी है।

आईटी पर दबाव
हालात: माना जाता है कि ज्यादातर इंजीनियरिंग स्टूडेंट आईटी सेक्टर में जाते हैं। जबकि इस क्षेत्र में महज 18 प्रतिशत ग्रेजुएट के लिए ही जगह होती है।
वजह: आईटी में अच्छे सेलरी पैकेज और बेहतर सुविधाओं के कारण ज्यादा लोग आ रहे हैं। अच्छे इंजीनियर्स आईटी का रुख कर जाते हैं, इससे दूसरे क्षेत्रों में दोयम दर्जे के इंजीनियर्स हैं।

नौकरी है लक्ष्य
हालात: अधिकांश छात्र इंजीनियरिंग में महज पास होना चाहते हैं और उसके बाद कोई सामान्य नौकरी कर अपनी सेलरी बढ़ाने की जुगत करते हैं।
वजह: शिक्षा का उद्देश्य नौकरी पाने तक सीमित होना। सामाजिक दबाव भी इसकी बड़ी वजह है, जो किसी भी तरह के प्रयोग और विपरीत राह पर चलने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करता है।

कॉलेज लाइफ

हालात: इंजीनियरिंग के लिए छात्र अपने शहर को छोड़कर परिवार से दूर रहते हैं। इससे उन पर किसी तरह की रोकटोक नहीं होती है। अधिकांश छात्र उम्र के नाजुक मोड़ पर वे पढ़ाई के बजाय दीगर कामों में ज्यादा वक्त लगाते हैं।
वजह: अभिभावकों की रोकटोक नहीं होती। किशोरवय की रोकटोक के बाद मिली आजादी लुभाती है। नतीजतन वक्त बर्बाद होने लगता है।

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नामी संस्थानों पर बोझ  
हालात: बड़े और नामी संस्थानों की ओर ज्यादा छात्र रुख करते हैं। छात्र संख्या अधिक होने के कारण पढ़ाई का स्तर कमजोर होता है।
वजह: हर कोई सर्वश्रेष्ठ संस्थान तक पहुंचना चाहता है। काबिलियत के बजाय संस्थान की श्रेष्ठता पर ज्यादा भरोसा बढ़ता जा रहा है।

नकल कर रहे हैं हम
इंजीनियर का अर्थ है समस्या को हल करने वाला। एक ऐसा व्यक्ति जो समस्या को अपने वैज्ञानिक, व्यावहारिक और सहज ज्ञान से हल करता है। ज्यादातर भारतीय छात्र इस मानदंड पर पिछड़ते हैं। रिपोट्र्स और सर्वे बताते हैं कि सभी विषयों के भारतीय छात्रों में नकल की प्रवृत्ति ज्यादा है। वे प्रोजेक्ट भी किसी अन्य प्रोजेक्ट से नकल करते हैं, जबकि वह प्रोजेक्ट भी किसी अन्य की नकल होता है। इस तरह सिलसिला चलता रहता है। यही हालात शिक्षा व्यवस्था में भी है। इनोवेशन की कमी के कारण कोई नया तरीका ईजाद नहीं किया जा रहा है, जिसके की बाजार की जरूरतों के हिसाब से भविष्य के इंजीरियर्स तैयार किए जा सकें।

कुछ दिलचस्प आंकड़े
6214 इंजीनियरिंग कॉलेज है देशभर में। दुनिया में सबसे ज्यादा।
1511 थी 2006 में इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्या
1100 कुल इंजीनियरिंग कॉलेज हैं अमरीका के 50 राज्यों में
3 लाख छात्र हर साल लेते हैं भारत में इंजीनियरिंग में दाखिला
1.5 लाख नये इंजीनियर्स आते हैं हर साल जॉब मार्केट में
80 प्रतिशत इंजीनियरिंग ग्रेजुएट नहीं होते नौकरी के काबिल। 17 प्रतिशत ही होते हैं आईटी के लिए उपयोगी।
7 प्रतिशत ही होते कोर इंजीनियरिंग जॉब के काबिल।
18 प्रतिशत टायर-1 शहरों (मुंबई, दिल्ली, बंगलुरू, हैदराबाद आदि) के ग्रेजुएट होते हैं नौकरी के काबिल।
14 प्रतिशत ग्रेजुएट ही होते है टायर-2 शहरों (पुणे, इंदौर, जयपुर)  के नौकरी लायक।
24 प्रतिशत कम मौके मिलते हैं नौकरी के टायर-2 ग्रेजुएट के पास, टायर-1 ग्रेजुएट के मुकाबले
स्रोत: एस्प्रिंग माइंड्स नेशनल एम्पलॉयबिल्टिी (एएमएनई) रिपोर्ट, एचआरडी मंत्रालय